कौशिकी नदी के तटपर अत्यन्त रमणीय प्राकृतिक स्थानपर शमीक ऋषि का आश्रम था । शमीक ऋषि महान तपस्वी तथा परोपकारी स्वभाव के थे । अनेक ऋषिकुमार उनके पास वेदों का अध्ययन करने के लिए रहते थे । शमीक ऋषि का पुत्र शृंगी भी उन ऋषिकुमारों के साथ रहकर अध्ययन कर रहा था ।
एक दिन वे सब ऋषिकुमार उस उपवन में होम के लिए समिधा (लकडियां) लाने गए थे । उनके साथ शृंगी भी गया था । उस समय शमीक ऋषि आश्रम में ही ध्यान-धारणा में लीन बैठे थे ।
नेत्रों को मूंदकर ब्रह्मसुख का अनुभव करते हुए शमीक ऋषि समाधि अवस्था में थे । वे बाह्य जगत को पूर्णतः भूल गए थे । ऐसे समय आश्रम में कौन आया, कौन गया, इसका पता उन्हें कैसे चलता !
दोपहर का समय था । प्रखर धूप से शरीर तप रहा था । राजा परीक्षित आखेट के लिए वन में भटकते-भटकते बहुत थक गए थे और प्यास से व्याकुल भी हो गए थे । उन्हें विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता थी । घूमते-घूमते राजा परीक्षित शमीक ऋषि के आश्रम में पहुंचे । इस स्थानपर मुझे पानी मिलेगा, मेरी प्यास बुझेगी, थोडा विश्राम मिलेगा और तपोनिधि शमीक ऋषि का सत्संग मिलेगा, इस आशा से परिक्षित उस आश्रम में पहुंचे ।
किन्तु, वहां पूर्णतः सन्नाटा छाया हुआ था । राजा का स्वागत करने कोई नहीं आया । इससे राजा को आश्चर्य हुआ । प्यास से व्याकुल राजा आश्रम में पानी खोजने लगे । तभी सामने शमीक ऋषि बैठे दिखाई दिए । उन्हें आनंद हुआ । उन्होंने ऋषि को प्रणाम कर विनम्रता से कहा, “मुनिवर, मुझे बहुत प्यास लगी है; पानी दीजिए !”
मुनि नेत्र मूंदकर ध्यानमग्न थे । वे उस राजासे कैसे बोलते !
राजाने उन्हें दो-तीन पुकारा; किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ । राजा को लगा कि “ऋषि आंखें मूदकर ध्यान का ढोंग कर रहे हैं और मेरा अपमान करने के लिए जानबूझकर मौन धारण किए हुए हैं ! तो ठीक है, मैं भी इस ढोंगी ऋषि का अपमान करूंगा !
प्यास से व्याकुल राजा इस अपमान से बहुत क्रोधित हुआ । इससे उसन का विवेक नष्ट हो गया । क्रोध में पैर पटकते हुए वे आश्रम से बाहर आए । इतने में राजा को एक वृक्ष के नीचे एक मरा हुआ सांप दिखाई दिया । राजाने उस मरे सांप को धनुष की टोक से उठाया और आश्रम में लौटकर ऋषि के गले में डाल दिया ।
परीक्षित राजा को आश्रम से जाते हुए एक-दो ऋषिकुमारों ने दूर से ही देखा था । उन्होंने शृंगी को यह बात बताई । तब शृंगीने कहा, “मित्रो, अब हम आश्रम चलें ! पिताजी ध्यानमग्न हैं । आए हुए राजा का हमें स्वागत करना चाहिए !” झप-झप पैर बढाते हुए आश्रम से बाहर जा रहे राजा को उन ऋषिकुमारों ने पुकारा । किन्तु, राजा नहीं लौटे, न पीछे मुडकर देखा ही !
पश्चात, शृंगी के साथ वे ऋषिकुमार आश्रम में आए और क्या देखते हैं ! ध्यानमग्न शमीक ऋषि के गले में मरा हुआ सांप डाला गया है ।
मेरे पिता का अपमान उस राजाने किया है, यह देखकर शृंगी को अत्यन्त क्रोध हुआ । क्रोध से लाल हुए शृंगीने हवनशाला में रखे कमण्डल से पानी हाथ में लेकर उसे भूमिपर फेंकते हुए शाप दिया, “मेरे ऋषि पिता का ऐसा अपमान करनेवाले उस नराधम परीक्षित राजा की मृत्यु आज से सातवें दिन नागराज तक्षक के काटने से होगी !” शृंगी का यह भयंकर शाप सुनकर सब ऋषिकुमार अत्यन्त भयभीत हुए ।
शमीक ऋषि के गल में पडा हुआ मृतसर्प उन ऋषिकुमारों ने निकाल दिया । शरीरपर चढी हुई चींटियों को भी उन्होंने झटककर हटा दिया । तभी शमीक ऋषि की समाधि टूटी और उन्होंने सामने खडे अपने शिष्य ऋषिकुमारों को देखा ।
वे सभी ऋषिकुमार भयभीत थे । शृंगी क्रोध से लाल होकर कांप रहा था । यह देख शमीक ऋषि ने पूछा, “मेरे प्रिय विद्यार्थियो, क्या बात है ? यह मरा सांप यहां क्यों है ? ये चींटिया ….? और तुम सब ऐसे क्यों खडे हो ?
पश्चात, शृंगीने अपने पिता को बीती पूरी घटना बताई । यह सुनकर शमीक ऋषि शांतिपूर्वक बोले, “बेटा, राजा परीक्षित के साधारण अपराध के लिए तूने जो सर्पदंश से मृत्यु का भयंकर शाप दिया है, यह बहुत बुरा हुआ । अरे, राजा विष्णु का अवतार होता है । वह पृथ्वी की प्रजा का पालन करता है । वे अपने इस आश्रम में आए थे । किन्तु, उनका सत्कार करने का पुण्य हमें नहीं प्राप्त हुआ ! उनका यहां आदर-सत्कार न होने के कारण ही वे क्रोधित हुए और विवेक हीनता के कारण उनसे यह साधारण-सा अपराध हो गया होगा ! उन्हें इस अपराध के लिए क्षमा करना छोडकर मृत्यु का शाप देना, हमारे जैसे ब्रह्मनिष्ठों को शोभा नहीं देता ! बेटा शृंगी, तू अभी भी अज्ञानी है ! `प्राप्त दु:खों को कोई बांट नहीं सकता, उसे तो भागकर ही समाप्त करना पडता है’, इसी में हमारी महानता है ! अब तो भगवान की शरण जा और अपने अपराध के लिए राजा परीक्षित से क्षमा मांग !”
उधर, राजा परीक्षित शमीक ऋषि के आश्रम से निकलकर तीव्र गति से राजभवन पहुंचे । विश्राम करने के पश्चात उन्हें अपने अपराध का स्मरण होकर पश्चाताप होने लगा !
थोडे ही समय पश्चात, शमीक ऋषि का एक शिष्य राजा परीक्षित के पास पहुंचा और उसने नम्रतापूर्वक कहा, “राजन्, ब्रह्मसमाधि में लीन शमीक ऋषि की ओर से आपका यथोचित सत्कार नहीं हुआ । इसलिए उन्हें अत्यन्त खेद हो रहा है । किन्तु, आपने उस स्थानपर मरे पडे सांप को बिना सोचे-समझे उनके गले में डाल दिया । आपके इस अपराध के लिए उनके तपस्वी पुत्र शृंगीने आपको, आज से सातवें दिन सर्प के काटने से मृत्यु होने का शाप दिया है । यह शाप असत्य नहीं होगा । अतः, तबतक आप अपना समय पुण्यकर्म एवं ईश्वर-चिंतन में बिताएं ! महा क्षमाशील शमीक ऋषि ने मुझे यह संदेश आपको बताने के लिए भेजा है ! आप इस शापवाणी से अनभिज्ञ न रहें, इसीलिए उन्होंने यह संदेश भेजा है । राजन्, अब आप सतर्क रहकर मोक्षप्राप्ति के लिए साधना करें !”
शमीक ऋषि का यह सन्देश सुनकर राजा को सन्तोष हुआ । मेरे हाथों हुए अपराध के लिए मुझे उचित दण्ड मिलेगा, इस विचार से उन्हें आनंद हुआ !
पश्चात, राजा परीक्षित गंगातटपर जाकर रहने लगे । वहां व्यासपुत्र शुकदेव मुनि पहुंचे । उन्होंने राजा परीक्षित को उन सात दिनों में “भागवत-कथा” सुनाई । तभी से, यह पुण्यप्रद भागवत सप्ताह सुनने का लाभ हम सबको प्राप्त हो रहा है ।
परीक्षित राजा ने भागवत सप्ताह का आयोजन किया है, यह समाचार सुनकर क्षमाशील शमीक ऋषि को आनंद हुआ । वे भी अपना समय अभीष्ट चिन्तन-मनन एवं भगवान से क्षमायाचना करते हुए बिताने लगे !