कोई भी निर्णय लेने से पूर्व स्वकीयों अथवा वरिष्ठों से उस विषय के बारे में पूछना, यह मनुष्य प्राणी का स्वभाव होना
‘प्रतिदिन होनेवाली बच्चों की आत्महत्या आज राज्यस्तरपर चिंता का विषय बन गया है । प्रतिदिन इस संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है । इससे पूर्व छोटे बच्चों की आत्महत्या के प्रसंग नहीं हुए; परंतु इस प्रकार आत्महत्या की श्रृंखला-सी बन जाने की यह पहली घटना है । अल्पायु में बच्चों का आत्महत्या जैसा निर्णय लेना, यह जितना आश्चर्यजनक है, उतना ही उन्हें यह निर्णय लेने को बाध्य करनेवाले एवं वैसी परिस्थिति निर्माण करनेवाले घटकोंपर विचार करना भी आवश्यक है । जीवन का अर्थ क्या है, जीना कैसे है तथा जीवन में घटनेवाले प्रसंगों का सामना कैसे करना है, जीवन के निर्णय कैसे लेने हैं । सामाजिक तथा पारिवारिक भान कैसे रखना है, यह सारा भाग विद्यार्थी अवस्था से तारुण्य अवस्था तक मनुष्य सीखता है । इस काल में होनेवाले अनुभवों से ही वह आगे मार्गक्रमण करता है । इस संपूर्ण यात्रा में उसे आवश्यकता होती है किसी योग्य मार्गदर्शन की । उसकी भावनाओं को समझनेवाले सहयोगियों की । वह सहयोगी कोई भी हो । माता-पिता, मित्र-सखी, शिक्षक एवं अन्य कोई । कोई भी निर्णय लेने से पूर्व स्वकीयों अथवा वरिष्ठों से उस विषय में पूछना, यह मनुष्य प्राणी का नैसर्गिक स्वभाव है । अब यह निर्णय कोई नई वस्तु क्रय करने के विषय में हो अथवा जीवन के किसी महत्त्वपूर्ण निर्णय के विषय में । इस समय यदि योग्य मार्गदर्शन नहीं मिला, तो मनुष्य चरमपंथी निर्णय लेने में भी आगे-पीछे नहीं देखता ।
मन को मानसिक आधार तथा भावनाओं को समझने की नितांत आवश्यकता होने के कारण उसकी न्यूनता की आपूर्ति अभिभावक ही कर सकते हैं !
बच्चों की आत्महत्या के पीछे अधिकांशतः कारण अभिभावकों का उनपर बढता हुआ दबाव, अल्पायुमें उनपर लादा गया अपेक्षाओं का भार है ऐसे कहा जाता है, यह बहुत मात्रा में सच भी है । आज के भाग-दौड के जीवन में माता-पिता दोनों बच्चे के उज्ज्वल भविष्य हेतु चाकरी करने का, धनसंचय करने का मार्ग स्वीकारते दिखाई देते हैं । जिस अल्पायु में बच्चोंपर संस्कार करने की आवश्यकता होती है, उस आयु में दिन का अधिकांश समय वे उनसे दूर रहा करते हैं । बच्चों को हमारी कमी न खले; इस हेतु उन्हें जो चाहिए, वह दिया जाता है । घर में मन लगे इसलिए संगणक, वीडिओ गेम लाकर दिए जाते हैं । महंगे भ्रमणभाष (मोबाईल) दिए जाते हैं । बच्चों को संभालने के लिए दाई कामपर रखी जाती है । हमारा पाल्य पढ-लिखकर बडा पद मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करें; इसलिए लाखों रुपए डोनेशन भरकर नामांकित पाठशाला में उसका प्रवेश कराया जाता है, विख्यात कोचिंग क्लासेस, ट्यूशन्स के लिए भेजा जाता है । सर्व प्रकार की शैक्षिक सामग्री लाकर दी जाती है । गाइड्स लाकर दी जाती हैं । यह सर्व दिया तो हमारा अपने पाल्यों के प्रति कर्तव्य समाप्त हो गया । अब हमारा पाल्य अच्छी प्रकार से अध्ययन करे, अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो, यह अपेक्षा होने लगती है; परंतु बच्चे कोई यंत्र नहीं हैं कि, अच्छा कच्चा माल डाला और, उत्तम प्रति का उत्पाद निर्माण कर सके । मनुष्यप्राणी तथा निर्जीव वस्तुओं में मुख्य अंतर यही है कि, मनुष्य का मन तथा उस मन में भावना होती है । इस मन को मानसिक आधार तथा भावनाओं को समझने की इस आयु में नितांत आवश्यकता होती है तथा उसकी न्यूनता की पूर्ति अभिभावक ही भली प्रकार से कर सकते हैं ।
मां का प्रेम तथा पिता का दबदबा ही बच्चों को अनुशासित कर सकता है !
पूर्व में अभिभावक अपने बच्चों में अच्छे संस्कार हों , इस हेतु दिन-रात कष्ट सहते थे । जन्म लेनेवाला बच्चा गर्भ में रहते ही संस्कारी हों; इस लालसा से स्त्रियां रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों का वाचन करती थीं । बच्चों को कुछ समझ में आने लगा, दो शब्द बोलने लगा तो उसे शुभं करोति कहना, रामरक्षा पढना, गीता के अध्याय बोलना, खाते समय प्रार्थना कर के खाना, दीपबाती के समय तथा पाठशाला जाते समय प्रभु तथा घर के बडों के पैर छुना इत्यादि संस्कार दिए जाते थे । अध्ययन, क्रीडा, अल्पाहार, भोजन के समय का नियमित पालन किया जाता था । भोजन में बच्चों को पौष्टिक आहार दिया जाता था । मां तथा दादा-दादी इतिहास के शूरवीरों, समाज सुधारकों की कहानियां सुनाते थे । मां का प्रेम तथा पिता का दबदबा बच्चों को अनुशासित करता था । बचपन में ही योग्य संस्कार मिलने से वे आगे व्यवहार में भी उपयोगी होते थे ।
आधुनिक साधनों का बच्चों के कोमल मनपर संस्कार होना
आज स्थिति बिल्कुल परिवर्तित हो गई है । माता-पिता चाकरी कर रहे हैं, तो बच्चोंपर संस्कार कैसे होंगे ? और तो और केबल दूरचित्रवाणी, संगणकीय जाल (इंटरनेट) वीडियो गेम के घर-घर आने से आधुनिक साधन ही बच्चों के कोमल मन को कुसंस्कासिरत कर रहे हैं । केबल दूरचित्रवाणीपर दिखाए जानेवाले हिंसक तथा वीभत्स चित्रपट आज के अभिभावक बच्चों के साथ बैठकर देखने लगे हैं । सेन्सॉर की मर्यादा शिथिल होने के कारण पहले चित्रपटगृह में भी जो दृश्य देखने को नहीं मिलते थे, वे अब घर बैठे देखने को मिलने लगे हैं । निराशा, अपमान होनेपर मृत्य को गले लगाना इत्यादि बच्चे ऐसे चित्रपटों से सीख रहे हैं । आत्महत्या करने के विविध ढंगों का ज्ञान उन्हें संगणकीय जालपर, दूरचित्रवाणी के माध्यम से सहज ही मिलने लगा है । यही कारण है कि अबतक विदेश में सीमित, छोटे बच्चों की आत्महत्या के प्रसंग आज महाराष्ट्र में भी होने लगे हैं ।
अपमान के घूंट को पीने के लिए उन्हें व्यसन करना अथवा आत्महत्या करना सरल लगना
दूरचित्रवाणी, संगणकीय जाल जैसे लोकहित हेतु बनाए गए माध्यम आज लोगों के प्राणों के संकट बन गए हैं । संगणकीय जाल के कारण विश्वभर में संपर्क बढा; परंतु संपर्क बढने से विश्व की अच्छी बातों की अपेक्षा बुरी लतों का प्रभाव ही लोगोंपर अधिक हो रहा है । बुरी आदतें शीघ्र लगती हैं, इसलिए मानव ने अच्छे से अधिक बुरे को ही निकट कर लिया है । अंग्रेजों के जाने के ६२ वर्ष उपरांत भी देश के भावी आधारस्तंभ पश्चिमी संस्कृति की भेंट चढ रहे हैं । अनीति हाहाकार कर रही है । नैतिकता विलुप्त होती जा रही है । जीवन में होनेवाले अपमान को पचाने की क्षमता आज के युवाओं में नहीं रही । अपमान से मनपर हुए घाव भरने के लिए दो ही उपाय अपनाए जा रहे हैं – व्यसन अथवा आत्महत्या । किशोर भी अब युवाओं के अनुगामी हो रहे हैं । इसे इस देश का दुर्भाग्य ही कहना होगा ।
परिस्थिति कितनी भी प्रतिकूल हो, तब भी अपना आत्मविश्वास न टूटने दें !
आज पुनः एक बार आवश्यकता है, बच्चों को पुराण, इतिहासकी कहानियां सुनाकर उनका सुप्त आत्मविश्वास जागृत करने की । अल्पायु में ही अखंड ईश्वरभक्ति कर ध्रुवने अटल पद प्राप्त किया, मृत्यु यातना भोगकर भी प्रह्लाद ने नारायण का नाम मुख से नहीं छोडा । अत: प्रभु को उसके रक्षण के लिए नृसिंह अवतार लेना पडा । आयु के सोलह वें वर्ष में संत ज्ञानेश्वरजी ने संपूर्ण विश्व के लिए मार्गदर्शक दीपस्तंभरूपी ज्ञानेश्वरी लिखी । सतरहवें वर्ष में छत्रपति शिवाजी महाराज ने शत्रु के चंगुल से तोरणा गढ छीना । २२वें वर्ष में झांसा की रानी प्राण हथेलीपर लेकर गोरोंपर टूट पडी और खूब लडी । ये सर्व घटनाएं हमें क्या बताती हैं ? परिस्थिति कितनी ही प्रतिकूल क्यों न हों, अपना आत्मविश्वास अडिग रखें । प्रत्येक के भीतर ईश्वर ने एक सुप्त शक्ति दी है । हमें उसे केवल जागृत करना है । वह एक बार जागृत हो गई तो कितने भी बडे संकट क्यों न आएं, उन्हें परास्त करने का बल हम में आ जाता है । परीक्षा का अपयश अथवा किसी द्वारा किया गया अपमानजनक व्यवहार इतना बडा संकट नहीं हैं कि जिसके लिए भगवान का दिया हुआ यह सुंदर मानवजन्म क्षणभर में समाप्त कर दिया जाए । जीवन में आनेवाले प्रत्येक संकट का जो क्षात्रवृत्ति से सामना करता है । वही जीवन में यशस्वी होता है । `अपयश ही यश की पहली सीढी है’, ऐसा कहा जाता है । अपयश को ढाल बनाकर आत्मविश्वास की तलवार निकाल ली, तो जीवन संग्राम सहज ही जीता जा सकता है, यह सीख आज बच्चों को देने की आवश्यकता निर्माण हुई है । इसके लिए अभिभावक तथा शिक्षकवर्ग को ही पहल करनी होगी !
– श्री. घाणेकर, मुंबई.