मेवाड के शूरवीर राजपूत राजा
मेवाड की भूमिपर रचा गया इतिहास एवं चितौड, उदयपुर, हल्दी घाटी ये धर्मक्षेत्र अपनी तेजस्वी परंपरा के कारण चिरकाल तक अमर रहेंगे, उनकी इतनी महत्ता है । पंजाब, हरियाणा, सिंध तथा राजस्थान इन चार प्रांतों के लाखों शूरवीरोंने सैकडों वर्ष युद्ध कर धर्म हेतु बलिदान करने की उच्च परंपरा स्थापित की । यही परंपरा `सिसोदिया’ राजवंशने राजस्थान में तथा छत्रपति शिवाजी महाराज के रूप में महाराष्ट्र में भी बनाए रखी । मेवाड में यही एक ऐसा राजवंश है जो अंत तक विदेशियों से युद्ध कर यशस्वी हुआ । इस परंपरा के श्रेष्ठ वीर पुरुषों का परिचय संक्षेप में इस प्रकार है ।
बाप्पा रावळ
ईस्वी वर्ष ७३५ में सब अरबोंने मिलकर मेवाडपर आक्रमण कर दिया । उस समय सिसोदिया वंश के बाप्पा रावळने उनसे घमासान युद्ध कर उन्हें मार भगाया । उनके प्रांतों में जाकर अपना दबदबा निर्माण किया । तथा सर्व अरबों को अपने अधीन कर लिया । इस युद्ध के कारण भारतपर ३०० वर्ष तक आक्रमण न करने का भय विदेशियों में समा गया ।
राणासंग
दिल्लीपर मुगल बादशाह बाबर का राज्य था । उस समय मेवाड के सिसोदिया वंश के राणासंगा का राजस्थान, पंजाब तथा सिंधपर वर्चस्व था । उसने दिल्ली की विदेशी सत्ता उखाड फेंकने का प्रयत्न आरंभ किया । बाबर को इसकी भनक लग गई और उसने सन् १५२७ में राणासांगा से घमासान युद्ध कर उन्हें पराजित कर दिया । इस कारण हिंदवी राज्य की अपेक्षा मुगलों का राज्य शक्तिशाली हो गया । इतना होनेपर भी बाबर के मन में राजपूतों से भय निर्माण हो गया तथा उसके उपरांत उसने राजपूतों से संघर्ष करना छोड दिया । इस पराजय से निराश न होते हुए राणासांगाने पुनः युद्ध की तैयारी आरंभ की; परंतु दुर्भाग्यवश उनकी मृत्यु हो गई ।