कहते हैं कि आचार्य चाणक्य के पास एक चीनी यात्री आया था । वह जिस समय मिलने आया था, उस समय चाणक्य ( विष्णुगुप्त, कौटिल्य) कुछ लिख रहे थे । आपको तो ज्ञात ही है कि उस समय न तो बडे दीए थे और न ही बिजली थी । तेल के दीए जलाए जाते थे । उस दिन सायंकाल ऐसे ही एक दीपक के प्रकाश में विष्णुगुप्त कुछ महत्त्वपूर्ण अभिलेख लिख रहे थे, तभी वहां वह चीनी यात्री आया । उस यात्री का आचार्य चाणक्य ने स्वागत किया, बैठाया एवं अपने हाथ का अभिलेखन कार्य पूर्ण किया । कार्य पूरा करने के पश्चात आचार्य ने क्या किया, जानना चाहते हैं ? तो सुनिए, उनके सामने दो दीए थे । एक जला हुआ था तथा दूसरा बुझा हुआ था । चाणक्य ने प्रथम अपने सामने का जलता दीप बुझाया, तत्पश्चात दूसरा दीप जलाया । यह देखकर चीनी यात्री अत्यन्त चकित हुआ । उसे लगा कि चाणक्य ने ऐसा कर, किसी भारतीय प्रथा का पालन किया होगा । सम्भवतः भारत में अतिथि के आगमनपर यहां के लोग ऐसा करते होंगे । उसने कुतूहलवश चाणक्य से प्रश्न किया, ‘आपके देश में ऐसी कोई प्रथा है क्या, जिसके अनुसार अतिथि के आगमनपर जलता हुआ दीप बुझाकर दूसरा दीप जलाना पडता है ?’
उसकी ये बातें सुनकर आचार्य चाणक्य ने कहा, ‘ऐसा नहीं है । मैं अभी जिस दीप के प्रकाश में लिख कर रहा था, वह दीप, उसमें भरा तेल और कार्य तीनों मेरे राष्ट्र के थे । अर्थात, मैं ने अपने राष्ट्र का कार्य राष्ट्र के धन से किया । अब मैं आपसे जो चर्चा करनेवाला हूं, वह मेरा व्यक्तिगत विषय है, राष्ट्र का नहीं ! व्यक्तिगत चर्चा में राष्ट्र का तेल न लगे, इसलिए मैंने राष्ट्र का दिया हुआ दीप बुझाकर अपना दीप जलाया ।’
हमारे आचार्यों के विचार इतने उच्च थे कि यह सब जानकर मन चकित हो जाता है । इतनी ऊंचाईपर पहुंचे इन लोगों को देखकर ऐसा लगता है कि हमें उनका थोडा तो भी अनुकरण करना चाहिए । कितना शुध्द बरताव, कितना शुध्द आचार, कितना शुध्द मन, कितना शुध्द चित्त एवं अंतःकरण रहा होगा उनका ! आप अपने मन में थोडा सोचकर बताइए कि इन आचार्यजी को कौन-सी पदवी देनी चाहिए ? इतने उच्च वैचारिक धरातल के आचार्य को क्या कहें ? हमारे लोग कब सीखेंगे इनसे ? वैसे तो राजनेताओं को इनसे सीख लेनी चाहिए; परन्तु लोग अभागे हैं । कोई सीखना नहीं चाहता ।