एक बार एक राजा और उसकी रानी दोनों एक जलाशय में स्नान के लिए गए थे । तब जलक्रीडा करते समय राजा अपनी रानीपर जल उडाने लगा । तभी रानी ने कहा, ‘‘मोदकै: ताडय त् ‘ यह सुनकर उस राजाने कहा, ‘‘मोदकै: ताडय ? अरे, कोई है ?’ राजा की पुकार सुनकर सर्व सेवक तुरंत दौडे चले आए । राजाने आज्ञा दी, ‘‘शीघ्राति शीघ्र मोदक से भरी थालियां लेकर आओ ।’ मोदक की थालियां लाई गर्इं, तब राजाने रानीपर एक-एक मोदक मारना प्रारम्भ किया । यह देखकर रानी ने माथा पीटा । अब कैसे समझाए इस राजाको ? उसने कहा, ‘‘स्वामी, ‘मोदकै: ताडय’ अर्थात ‘मा उदकै: ताडय त्’ उदक का अर्थ होता है जल ! उदक से अर्थात जल से मुझे प्रताडित न करें जलसे मुझे न मारिए । यह अर्थ इसमें समाविष्ट है । राजा को व्याकरण की संधिका ज्ञान नहीं था । ‘मोदकै:’ शब्द सुनते ही बोल पडा, मोदक लाओ !
जब तक वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं होता , तब तक हमारी स्थिति इस राजा समान ही होती है । इसलिए सदैव पहले योग्य अर्थ समझ लेना चाहिए । अन्यथा हम भी इस राजा समान उपहास के पात्र बनेंगे ।