जनमेजय राजा ने ऋषि वैशंपायन को समुद्र मंथन की कथा सुनाने की विनती की । इसलिए वे कथा सुनाने लगे – राजा, प्राचीनकाल में देव और दैत्यों ने समुद्र मंथन कर अमृत तथा अन्य रत्नों को निकालने का निश्चय किया । उन्होंने मंदराचल पर्वत की मथनी बनाई और वासुकी नामक सर्प की डोरी बनाकर मंथन की प्रक्रिया प्रारंभ की । देवगण सर्प की पूंछ की ओर से तथा राक्षस गण मुख की ओर से खींचने लगे । मुख से बाहर आई विष की उष्मा से सभी को कष्ट होने लगा । इसलिए महादेव ने वह विष प्राशन किया ! समुद्र मंथन से देवी लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजातक, सुरा (दारू), चन्द्र, धन्वन्तरी, रम्भा, ऐरावत नामक सफेद हाथी, अमृत, विष, उच्चैःश्रवा नामक घोडा, गोमाता कामधेनू, शंख व हरिधनू ऐसे चौदह रत्न निकले ! समुद्र मंथन के समय मंदराचल पर्वत नीचे की ओर जाने लगा । तब भगवान विष्णू ने कूर्मरूप धारण कर उसे उपर उठाया ।
उपरोक्त चौदह रत्नों का बंटवारा होते समय अमृत और सुरा के लिए दोनों पक्षों में कलह उत्पन्न हो गया । इस कलह का निवारण करने के लिए भगवान विष्णु ने देवताओं को एक पंक्ति में तथा दैत्यों को दूसरी पंक्ति में बैठने के लिए कहा । तभी एक स्त्री आकर सबको अमृत और सुरा परोसेगी । जिसे जो मिलेगा वही स्वीकार करना होगा । भगवान विष्णू ने मोहिनी नामक स्त्री का रूप धारण कर बंटवारा करना प्रारंभ किया । मोहिनी का रूप देखकर असुर मोहित हो गए । उस समय विष्णू ने देवताओं को अमृत और दैत्यों को मदिरा परोसी । परोसते समय राहूने कपट से देवताओं की पंक्ति में जाकर अमृत पिया । यह देखकर चन्द्रदेव ने भगवान विष्णू को इशारा कर यह सूचित किया । भगवान विष्णू ने सुदर्शन चक्र से उसका शिरच्छेद किया । उसका मस्तक आकाश में उठा और शरीर पश्चिम समुद्र की ओर भागने लगा । यह देखकर देव और दैत्य उस शरीर को नष्ट करने का प्रयास करने लगे । भगवान शंकर ने भी अपना त्रिशूल उसके पेट में घोंपकर उसे मारने का प्रयत्न किया परन्तु राहू के पेट में अमृत होने के कारण वह शरीर नष्ट नहीं हो रहा था । तब भगवान शंकर ने म्हालसा नामक पर्वतपर राहू के गले में अंगूठा डालकर अमृत बाहर निकाला ! यही अमृत बहकर समुद्र में विलीन हुआ । इस प्रवाह को ‘प्रवरा नदी’के नाम से सम्बोधित करते है । यह प्रवरा नदी आगे गोदावरी नदी से मिलकर आगे पूर्व में सागर में विलीन हुई । प्रवरा और गोदावरी के संगमपर राहू के शरीरपर मोहिनी बैठी है । उसे म्हालसा कहते है ।