क्रांतिकार्य की पूर्ति हेतु चापेकर बंधुओंद्वारा प्रतिदिन बारह सौ सूर्यनमस्कार करना तथा एक घंटे में ११ मील भागने का वेग प्राप्त करना
दामोदर हरि चापेकर का घराना मूल कोकण के वेळणेश्वर का था; किन्तु उनके पूर्वज पुणे के निकट चिंचवड में आकर बस गए । वहीं २५.६.१८६९ को दामोदरपंत का जन्म हुआ । बचपन से ही दामोदरपंत तथा उनके दोनों बंधु बालकृष्ण एवं वासुदेव का झुकाव हिंदुस्तान को विदेशी दासता से मुक्त कराने की ओर था । क्रांतिकार्य की आवश्यकता समझकर उन्होंने प्रतिदिन बारह सौ सूर्यनमस्कार करना आरंभ किया, साथ ही एक घंटे में ११ मील भागने का वेग भी प्राप्त किया ।
दामोदर तथा बालकृष्णद्वारा रानी विक्टोरिया के मुंबई स्थित पुतले को डामर पोतकर जूतों की माला पहनाना
दामोदरपंत के पिता हरिभाऊ का प्रत्येक चातुर्मास में मुंबई जाकर प्रवचन करने का नियम था । १८९६ के चातुर्मास में पिता के साथ गए दामोदर तथा बालकृष्णने रानी विक्टोरिया के पुतले को डामर पोतकर जूतों की माला डाल दी । इस काल में कांग्रेस के अधिवेशनों का प्रारंभ ब्रिटिश रानी के स्तुतिगान से हुआ करता था । ऐसे काल में उनके इस साहसी कृत्य का मोल क्या रहा होगा !
सन्निपात (प्लेग) रोग का निमित्त कर अंग्रेजों के अधिकारी रैंड का नागरिकोंपर अत्याचार
१८९६ में ग्रंथिक सन्निपात (प्लेग) रोग का पुणे में तेजी से प्रसार होने लगा । सरकारने इस महामारी की रोकथाम के लिए ‘रैंड’ नामक एक आई.सी.एस. अधिकारी का मनोनयन किया । उसके गोरे सैनिक घरों की जांच करने के निमित्त नागरिकोंपर अत्याचार करने लगे ।
बालकृष्ण का वासुदेवराव की ‘गोंद्या आलाऽ रे आला…’ ध्वनि सुनकर आयस्र्ट को तथा पुनः वही ध्वनि सुनाई देनेपर दामोदरपंत का रैंड को मार डालना
पुणे में हो रहा यह अत्याचार चापेकर बंधुओं के अंतःकरण में प्रतिशोध की आग जलाने लगा । रैंड से बदला लेने का अवसर चापेकर बंधुओं को शीघ्र ही मिला । १८९७ का वर्ष रानी विक्टोरिया के राज्य कार्यभार का ६०वां वर्ष था । उसी निमित्त पुणे के गणेशखिंड में राजभवनपर एक समारंभ आयोजित किया गया था । २२.६.१८९७ की रात्रि में गणेशखिंड का समारंभ समाप्त होनेपर रैंड तथा आयस्र्ट अपनी-अपनी स्वतंत्र घोडा गाडियों से निकले । आयस्र्ट की घोडागाडी आगे थी । वासुदेवराव की ‘गोंद्या आलाऽ रे आला…’ यह ध्वनि सुनते ही तथा रैंड-जैसी दिखनेवाली आयस्र्ट की घोडागाडी दिखते ही बालकृष्ण चलती घोडागाडी में घुसे तथा अपना ‘रिवॉल्वर’ आयस्र्ट के मस्तक में खाली कर दिया ।
तभी दूर से आ रही ध्वनि अभी रुक नहीं रही है, यह ज्ञात होते ही दामोदरपंत सब समझ गए । बालकृष्णपंत द्वारा गंवाया हुआ अवसर पुनः मिलने का आनंद भी उन्हें हुआ । रैंड की गाडी के पीछे भाग रहे वासुदेवराव को रोककर उन्होंने स्वयं ही गाडीपर छलांग लगाई । छप्पर का परदा गिराकर उन्होंने इस रैंडपर अपना रिवॉल्वर खाली कर दिया । दामोदरपंत कार्यासिद्धी के आनंद में गाडी से नीचे उतर गए; किन्तु दोनों घटनाएं गाडीवानों के ध्यान में आयी ही नहीं ।
द्रविड बंधुओं की चुगलखोरी के कारण दामोदरपंतएवं बालकृष्णपंत तथा चुगलखोर द्रविड बंधुओं को मारने के कारण वासुदेवपंत को फांसी
कुछ महीनों में द्रविड बंधुओं की चुगलखोरी के कारण दामोदरपंत एवं बालकृष्णपंत को पकड लिया गया । उनपर अभियोग चलाकर १८.४.१८९८ को दामोदरपंत को तथा १२.५.१८९९ को बालकृष्णपंत को फांसी दे दी गई । चापेकर बंधुओं की यह कहानी इतनेपर ही समाप्त नहीं हुई । द्रविड बंधुओं की चुगलखोरी का पता चलते ही कनिष्ठ वासुदेवपंत संतप्त हो उठे । महादेव रानडे नामक मित्र की सहायता से उन्होंने चुगलखोर द्रविड बंधुओं को मार डाला । ८.५.१८९९ को वे स्वयं फांसीपर चढ गए ।
रैंड के वध के समय दामोदरपंत की आयु थी २७ वर्ष, मंझले बालकृष्णपंत की २४ तथा छोटे वासुदेवराव की १८ वर्ष ! इन अल्पायु युवाओं का असीम त्याग तथा शौर्य देखकर आज भी हृदय अभिमान से भर जाता है ! तीन सगे भाइयों का राष्ट्रकार्य के लिए किया गया यह बलिदान जगत में अद्वितीय है !