सोलह संस्कार करने के उद्देश्य

१. सोलह संस्कार करने के उद्देश्य

भारतीय परंपरा के अनुसार मनुष्य का प्रत्येक कृत्य संस्कारयुक्त होना चाहिए । सनातन धर्म ने प्रत्येक जीव को सुसंस्कृत बनाने हेतु गर्भधारणा से विवाह तक प्रमुख सोलह संस्कार बताए हैं । इन संस्कारों का उद्देश्य इस प्रकार है –

१. बीजदोष न्यून करने हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

२. गर्भदोष न्यून करने हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

३. पूर्वजन्मों के दुष्कृत्यों के कारण देवता तथा पितरों का शाप हो तो उनकी बाधा दूर करने हेतु तथा उनके ऋण से मुक्त होने के लिए एवं कुलदेवता, इष्टदेवता, मातृदेवता, प्रजापति, विष्णु, इंद्र, वरुण, अष्टदिक्पाल, सवितादेवता, अग्निदेवता आदि देवताओं को प्रसन्न कर उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

४. बालक आरोग्यवान, बलवान तथा आयुष्यमान हो, इस हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

५. बालक बुद्धिमान, सदाचारी, धर्म के अनुसार आचरण करनेवाला हो, इस हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

६. अपने सत्कृत्य तथा धर्मपरायण वृत्ति से आत्मोन्नति कर अपने वंश की पूर्व की बारह तथा आगे की बारह पीढियों का उद्धार करने की क्षमता बालक में आए, इस हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

७. स्वयं की आध्यात्मिक उन्नति कर ब्रह्मलोक अथवा मोक्षप्राप्ति की क्षमता अर्जित करने हेतु संस्कार किए जाते हैं ।

८. सनातन धर्म के अनुसार प्रत्येक का प्रत्येक कृत्य तथा उसपर किया गया प्रत्येक संस्कार परमेश्वर को प्रसन्न करने हेतु होता है; क्योंकि परमेश्वर की कृपा होनेपर ही हमारा उद्देश्य पूर्ण हो सकता है ।

 ये सर्व संस्कार बालक के माता-पिता तथा गुरु को करना चाहिए ।

२. द्रव्यपर आयुर्वेद का संस्कार

किसी द्रव्य का गुण परिवर्तित करने हेतु, अर्थात उससे शरीरपर कोई अनिष्ट परिणाम न हो तथा शरीर की कार्यक्षमता बढे, इस हेतु द्रव्यपर जो प्रक्रिया की जाती है, उसे ‘संस्कार’ कहते हैं ।

‘संस्कारो हि गुणान्तराधानं उच्यते ।’
– चरक सूत्रस्थान २६-३४

‘संस्कार’ अर्थात पवित्रता, शुद्धता तथा स्वच्छता । अन्न पकाने से (अग्निसंस्कार से) वह ठीक से पचता है । औषधि को कूटकर चूर्ण बनाने से वह महीन अर्थात सूक्ष्म  और अत्यधिक गुणकारी हो जाती है ।  मर्दनं गुणवर्धनम् ।
‘जमालगोटा’ (जयपाल) एक रेचक औषधि है । इसे अंग्रेजी भाषा में ‘क्रॉटन पॉलिएन्ड्रम’, कहते हैं । रेचक होते हुए भी यह पेट में मरोड उत्पन्न करता है । जयपाल नींबू के रस के साथ खानेपर मरोड नहीं होती । इसे ही संस्कार कहते हैं ।

३. जड वस्तुपर संस्कार

पत्थर से मूर्ति बनाने हेतु शिल्पकार को पत्थर पर हथौडा चलाकर उसका अनावश्यक भाग निकालना पडता है तथा बाद में छेनी से उसपर महीन काम करना पडता है । ऐसा आघात सहकर ही, अर्थात संस्कार होकर ही पत्थर को देवत्व प्राप्त होता है । इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य पहले मनुष्ययोनि में अनेक बार जन्मा हुआ होनेपर भी उसे पुनः-पुनः सीखना पडता है तथा उसपर संस्कार करने पडते हैं ।

कोई मनुष्यजन्म से अरण्य में ही रहा हो तथा मनुष्यों के संपर्वâमें आया ही न हो, तो कभी भी बोल नहीं पाएगा । घर में मनुष्यों के बोल सुनकर तथा उनका भाव समझकर बच्चा धीरे-धीरे बोलना सीखता है । पूर्वजन्म में यही भाषा रही होगी, ऐसा भी नहीं । भाषा नवीन होनेपर मन को भी भाषा का अभ्यास करने में समय लगना स्वाभाविक है । भाषा पूर्वजन्म की हो, तो भी उसमें परिवर्तन होते रहते हैं । ६०० वर्ष पूर्व की मराठी भाषा आज बहुत परिवर्तित हो गई है ।

मन की अभिव्यक्ति मानवीय मस्तिष्क तथा शरीर से होती है । (सक्षम) देह से मन के विचार अधिकाधिक कुशलता से व्यक्त होते हैं ।

विज्ञान की प्रगति के कारण बाहर के उपकरणों, तंत्रों तथा सुविधाओं में विशेषतः गत शताब्दी में बहुत परिवर्तन हुए हैं । ६०० वर्ष पूर्व के मनुष्य का अब जन्म होनेपर दूरचित्रवाणी, वायुयान, संगणक इत्यादि देखकर उसे लगेगा कि मैंने स्वर्ग में जन्म लिया है तथा इसके संबंध में उसे जानकारी, उनका तंत्र तथा उस विषय में शिक्षण लेना पडेगा । अध्यात्मशास्त्र परिपूर्ण होते हुए भी तथा उसमें कोई परिवर्तन न होनेपर भी, अध्यात्मशास्त्र समझने के लिए उसे विज्ञान के शोध बहुत उपयोगी होंगे । अध्यात्मशास्त्र सीखने हेतु पूर्व के उदाहरण न देकर आधुनिक उदाहरण देन पडेंगे । नवीन देह के साथ मन को भी चलना-बोलना सीखना पडेगा । वह जिस घर में जन्मा है, उस घर के लोगों को यदि गाली देने की आदत हो, तो लडका गाली देना सीखेगा । जहां नामजप, भजन, कीर्तन होता है, ऐसे घर में जन्म लेनेपर उसे नामजप करने की आदत लगेगी तथा उसपर अच्छे संस्कार होंगे ।

इसके साथ ही पूर्वजन्म के शिक्षण तथा संस्कार का इस जन्म में लाभ होता है, उदा. पूर्वजन्म में कोई संगीतज्ञ रहा हो, तो इस जन्म में संगीत सीखते समय कम समय में विलक्षण प्रगति होगी । पूर्वजन्म में अध्यात्मशास्त्र में पारंगत होनेपर इस जन्म में उसे पहले से ही अध्यात्मशास्त्र में रुचि होगी । आदि शंकराचार्य आयु के ८ वें वर्ष में वेद सिखाते तथा उनका अर्थ समझाकर बताते थे । भगवान श्रीकृष्ण ने गीतामें कहा है –

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽपि जायते ।

इस जन्म में सिद्धावस्था को न प्राप्त हुआ योगी अथवा साधक, मृत्यु के उपरांत सात्त्विक अथवा ऐश्वर्यवान घर में जन्म लेता है । सर्वसाधारणतः अनेक संतों का जन्म आध्यात्मिक वातावरणवाले कुलों में हुआ है ।

घर में मद्य अथवा सिगरेट के व्यसनवाले व्यक्ति हों, तो पूर्वजन्म में मद्य अथवा सिगरेट का व्यसन करनेवाला जीव उस घर में जन्म लेगा । इसके विपरीत, घर में सात्त्विक वातावरण हो, तो कोई पुण्यात्मा जन्म लेगा । अतः, हमारे बच्चे अच्छे हों, ऐसा लगता हो, तो स्वयं सात्त्विक आहार-विहार, आचार तथा विचार करना सीखें तथा स्वयं सात्त्विक प्रवृत्ति के बनें ।