राजा उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो भार्याएं थीं । राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र हुए । यद्यपि सुनीति बडी रानी थी किंतु राजा उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था । एक बार राजा उत्तानपाद ध्रुव को गोद में लिए बैठे थे कि तभी छोटी रानी सुरुचि वहां आई । अपने सौत के पुत्र ध्रुव को राजा की गोद में बैठे देख कर वह ईष्र्या से जल उठी । झपटकर उसने ध्रुव को राजा की गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उनकी गोद में बिठाते हुए कहा, ‘रे मूर्ख! राजा की गोद में वही बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ है । तू मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुआ है इस कारण से तुझे इनकी गोद में तथा राजसिंहासनपर बैठने का अधिकार नहीं है । यदि तेरी इच्छा राज सिंहासन प्राप्त करने की है तो भगवान नारायण का भजन कर । उनकी कृपा से जब तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होगा तभी राजपद को प्राप्त कर सकेगा ।
पांच वर्ष के बालक ध्रुव को अपनी सौतेली माता के इस व्यवहारपर बहुत क्रोध आया पर वह कर ही क्या सकता था? इसलिए वह अपनी मां सुनीति के पास जाकर रोने लगा । सारी बातें जानने के पश्चात् सुनीति ने कहा, ‘संपूर्ण लौकिक तथा अलौकिक सुखों को देनेवाले भगवान नारायण के अतिरिक्त तुम्हारे दुःख को दूर करनेवाला और कोई नहीं है । तू केवल उनकी भक्ति कर ।’
माता के इन वचनों को सुनकर वह भगवान की भक्ति करने के लिए निकल पडा । मार्ग में उसकी भेंट देवर्षि नारद से हुई । नारद मुनिने उसे वापस जाने के लिए समझाया किंतु वह नहीं माना । तब उसके दृढ संकल्प को देख कर नारद मुनि ने उसे ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र की दीक्षा देकर उसे सिद्ध करने की विधि समझा दी । बालक ध्रुवने यमुना जी के तटपर मधुवन में जाकर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र के जाप के साथ भगवान नारायण की कठोर तपस्या की । अल्पकाल में ही उसकी तपस्या से भगवान नारायण उनसे प्रसन्न होकर उसे दर्शन देकर कहा, ‘हे राजकुमार! मैं तेरे अन्तःकरण की बात को जानता हूं । तेरी सभी इच्छाएं पूर्ण होंगी । समस्त प्रकार के सर्वोत्तम ऐश्वर्य भोग कर अंत समय में तू मेरे लोक को प्राप्त करेगा ।’
इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि नामजप एवं दृढ संकल्प से ईश्वर शीघ्र प्रसन्न होकर हमारा कल्याण करते हैं ।