भील जाति की एक कन्या थी श्रमणा, जिसे बाद में शबरी के नाम से जाना गया । बचपन से ही वह भगवान श्रीराम की अनन्य भक्त थी । उसे जब भी समय मिलता, वह भगवान की पूजा- अर्चना करती । बडी होने पर जब उसका विवाह होनेवाला था तो अगले दिन भोजन के लिए काफी बकरियों की बलि दी जानी थी । यह पता लगते ही उसने अपनी माता से इस जीव हत्या का विरोध किया पर उसकी माता ने बताया कि, वे भील हैं और यह उनके यहा का नियम है कि, बारात का स्वागत इसी भोजन से होता है ! वह यह बात सह नही सकी और चुप चाप रात के समय घर छोड कर जंगलों की और निकल पडी !
जंगल में वह ऋषि-मुनियों की कुटिया पर गर्इ पर भील जाति की होने के कारण सबने उसे दुत्कार दिया ! आखिर में मतंग ऋषि ने उसे अपने आश्रम में रहने के लिए आश्रय दिया । शबरी अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से शीघ्र ही आश्रमवासियों की प्रिय बन गई । मतंग ऋषि ने अपनी देह त्याग के समय उसे बताया कि, भगवान राम एक दिन उसकी कुटिया में आएंगे ! वह उनकी प्रतिक्षा करे ! वही तुम्हारा उद्धार करेंगे । दिन बीतते रहे । शबरी रोज सारे मार्ग की और कुटिया की सफाई करती और टकटकी लगाए प्रभु राम की प्रतिक्षा करती ! ऐसे करते वह बूढी हो गर्इ, पर प्रभु की प्रतिक्षा नही छोडी क्यूंकि गुरु के वचन जो थे !
अंतमे शबरी की प्रतिक्षा की घडिया समाप्त हुई और भगवान श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ माता सीता की खोज करते हु्ए मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे । शबरी ने उन्हें पहचान लिया । उन्होंने दोनों भाईयों का यथायोग्य सत्कार किया । शबरी भागकर कंद−मूल लेने गई । कुछ क्षण बाद वह लौटी । कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी । कंद−मूलों को उसने भगवान को अर्पण कर दिया । पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी । कहीं बेर खराब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था । उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया । अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी । श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे । उन्होंने बडे प्रेम से जूठे बेर खाए । श्रीराम की कृपा से शबरी का उसी समय उद्धार हो गया ।