स्वामी दयानंदजी के विषय में एक सुंदर कथा कहते हैं । स्वामी दयानंदजी एक बार ऋषिकेश गए थे । उस कालखंड में अनेक सिद्ध पुरुष ऋषिकेश में जाकर वास्तव्य किया करते थे । आज भी ऐसा कहा जाता है कि, हिमालय के परिसर में अनेक सिद्ध पुरुष वास कर रहे हैं । स्वामी दयानंदजी हिमालय में गए । जिन्हें सिद्धि प्राप्त हुई है, ऐसे अनेकों तपस्वी के उन्हें दर्शन हुए; जिनकी तपश्चर्या सुफलित हुई हैं, ऐसे योगियों के दर्शन हुए । उस समय उन्हें गंगा तटपर एक अत्यंत तेजःपुंज तपस्वी दिखे । उनके साथ स्वामी दयानंदजी का संवाद हुआ । दयानंदजी आश्चर्यचकित होकर बोले, ‘‘ आपने तपश्चर्याद्वारा क्या-क्या प्राप्त किया?’’ तब वह सिद्ध पुरुष हंसकर कहने लगे, ‘मैंने अष्टांगयोग का अभ्यास किया है । क्या प्राप्त नहीं किया यह पूछ ! क्या प्राप्त किया यह क्या पूछ रहा है ? मुझे दिव्य (अलौकिक) सिद्धि प्राप्त हुई है ।’
आत्मज्ञान हुआ था कि नहीं, पता नहीं ! सिद्धि तो उस व्यक्ति को प्राप्त हुई थी । अंत में वे बोले, ‘मुझे सर्व सिद्धि प्राप्त हैं । सामने गंगा नदी है ! उसपर जैसे मार्गपर चलते हैं वैसे मैं चलकर जाता हूं । यह गंगा नदी का पात्र अतित होने की शक्ति मुझे प्रदान हुई है । यह सिद्धि मैंने मेरी तपश्चर्या से प्राप्त की है ।’ यह सुनकर स्वामी दयानंदजी ने स्मित हास्य किया । वे बोले, ‘आप सचमुच पानीपर चल सकते हैं क्या?’ उसपर वे बोले, ‘बेटा, तुम्हें शंका है क्या? ठीक है ! मैं पानीपर चलकर दिखाऊंगा !’
उस समय दयानंद सरस्वतीजी बोले, ‘उस तट से इस तटतक वापस वैसे आएगें?’ तब वह योगी ऊंचे स्वर में हंसने लगे और कहने लगे, हे मूर्ख, जैसे पानी के ऊपर चलकर जाऊंगा, वैसे ही वापस आऊंगा ।’ दयानंदजी ने प्रतिप्रश्न किया, ‘यह सिद्धि प्राप्त करने के लिए आपने अधिक तपश्चर्या की होगी ।’ वे बोले, ‘हां! साठ वर्ष मैं ने इस में व्यतीत किया है । यह एक सिद्धि प्राप्त करने हेतु मेरे जीवन के साठ वर्ष बीत गए । तथा तुझे मेरे आयु का अनुमान ही नहीं हैं । अष्टसिद्धी प्राप्त करना इसका अर्थ खेल नहीं ! लीलया कृत्य भी तो नहीं ! यह सर्व अनेक वर्ष की साधना के (उपासना के नंतर) उपरांत मुझे प्राप्त हुआ है ।’
अपने पातंजल योगदर्शन में ऐसा कहा गया है कि, वह अंतिम ज्ञानस्वरूप प्राप्त करने के लिए सिद्धियों की बडी अडचनें पार करनी पडती है । सिद्धि बीच में आती है और हमें संकेत देती है, कहती है, ‘अरे, हम आ गए । लो, हमें स्वीकार कर लो ।’ उसपर योगी को यह कहना चाहिए, ‘नहीं! मुझे एक भी सिद्धि नहीं चाहिए । मुझे निर्विकल्प समाधि का आनंद लेना है । एक भी सिद्धि मुझे नहीं चाहिए ।’ योगी का प्रलोभन से वशीभूत होने का अर्थ है तपश्चर्या नष्ट होना ।
दयानंदजी ने पूछा, ‘ क्या आपने सचमुच साठ वर्ष खर्च किए?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘एक सिद्धिप्राप्त करने हेतु मैंने साठ वर्ष खर्च किए । अन्य सिद्धियां प्राप्त करने के लिए कितने वर्ष खर्च किए तुझे बताऊं क्या?’ दयानंदजी बोले, ‘नहीं !’ उसी योगी को आश्चर्य हुआ और पूछने लगा, ‘नहीं, ऐसा क्यों कहा आपने?’ दयानंदजी बोले, ‘अजी, सीधीसी बात है । आपने इसी कारण साठ वर्ष बिताए । जीवन का इतना कालखंड आपने खर्च किया, मुझे दु:ख हुआ ।’ योगी ने पूछा, ‘दु:खी क्यों हुए?’ वे बोले, ‘यह नदी पार करने हेतु आपने साठ वर्ष खर्च किए, परंतु मुझे इसमें कोई भी अडचन नहीं प्रतीत होती ।’ योगी ने पूछा, ‘यह आप क्या कह रहे हैं ?’ उसपर दयानंदजी ने बताया, ‘सीधीसी बात है, मुझे उत्तम प्रकार से तैरना आता है, यदि भीषण बाढ भी आई हो, तो नाविक को बुलाकर, उसे कुछ पैसे देकर दूसरे तटपर पहुंच जाऊंगा ।’
तात्पर्य : व्यवहार में साधारण सी बातों के कारण तपश्चर्या शर्तपर नहीं लगानी चाहिए ।