‘एक बार राजा रहूगण पालकी में बैठकर कपिल मुनि के आश्रम जा रहे थे । पालकी का एक सेवक अस्वस्थ हो गया । इस कारण राजा बोले, ‘‘जो कोई भी दिखाई दे, उसे पालकी उठाने हेतु ले आओ ।’’ सेवकोंने भरत को देखा । उन्हें लगा ‘यह तो हृष्ट-पुष्ट युवक है’, इसलिए वह उन्हें ही पकडलाए । पालकी ले जाते हुए राजा ने भरत का अपमान किया । वे बोले, ‘‘तू सीधे नहीं चलता है । टेढा-मेढा चलता है, इससे मुझे पालकी में बहुत कष्ट हो रहा है ।’’ एक बार तो राजा का मस्तक पालकी की लकडी से टकराया । इस पर राजा भरत से बोले, ‘‘तुझे मैं दंड दूंगा ।’’ वास्तविकता में राजा से भरत ने न तो एक पैसा लिया था और न ही अन्न-धान्य ही लिया था । तब भी राजा अपनी अहंकारी वृत्ति के कारण भरत को मारने हेतु प्रवृत्त हुआ । भरत ने विचार किया कि, ‘राजा मेरे शरीर को मार सकता है परंतु आत्मा को तो कुछ नहीं होता; अतः मैं मौन ही रहूंगा । परंतु फिर उन्होने विचार किया, ‘राजा रहूगण को मैंने उठा रखा है । यदि राजा का अहंकार नष्ट न होने से वह नरकवासी हो गया, तो सत्संग की महिमा नष्ट हो जायेगी । लोग कहेंगे, ‘‘जडभरत की संगति में रहकर भी राजा को नरकवास हुआ ।’’ सत्संग की महिमा बनाए रखने हेतु भरतने मौन त्यागकर राजा से बोलना प्रारंभ किया। भरतने राजा को उपदेश किया, ‘‘राजा कल्याण हो । तुम कपिल मुनि के आश्रम में उपदेश लेने जा रहे हो; परंतु अपना अहंभाव त्यागकर जाओ ।’’ उस समय राजा रहूगणने भरत से क्षमा मांगी, अतः भरतने राजा को आत्मज्ञान की अनुभूति दी ।’
सीख : हमें कभी भी किसी का अपमान नहीं करना चाहिए ।
– डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (खिस्ताब्द १९९०)