यह कथा श्री वसिष्ठजी द्वारा श्रीरामजी को योगवसिष्ठ में विद्यमान उपशम प्रकरण में कथन की गई है । इससे यह स्पष्ट होता है कि उपासना के योग से ईश्वर की कृपा प्राप्तकर ज्ञान संपन्नता आती है और आत्मज्ञान प्राप्त होने हेतु स्वयं के प्रयासों एवं विचारों की आवश्यकता है । यह कथा इस प्रकार है – पाताल का राजा हिरण्यकश्यप अतिशय घमंडी था । श्रीविष्णुजीने नृसिंहावतार लेकर उसका वध किया । अन्य असुर भयभीतहुए । भगवान विष्णु के वापस जाने के उपरांत प्रल्हादने असुरों को धीर देकर उन्हें उपदेशदिया । तदनंतर उसने विचार किया कि, ‘देवता अतुल पराक्रमी हैं । उन्होंने मेरे पिता एवं बलाढ्य असुरों को नष्ट किया । उनपर आक्रमणकर नष्ट हुआ वैभव प्राप्त करना असंभव है, इसलिए उन्हें अब भक्ति से वश करना होगा ।’ ‘नमो नारायणाय’ यह नामजप कर उसने तप करना प्रांरभ किया । यह देखकर सर्व देवता आश्चर्यचकित हुए। ‘इसके पीछे असुरों का कुछ गुप्त कपट होगा’, ऐसी शंका उन्होंने श्रीविष्णुजी की से व्यक्त की । श्रीविष्णुजीने उन्हें समझाया, ‘बलवान असुर मेरी भक्ति कर अधिक बलवान होते हैं, यह सत्य है; किंतु प्रल्हाद की भक्ति से डरने की आवश्यकता नहीं, उसका यह अंतिम जन्म होगा, क्योंकी वह मोक्षार्थी है ।’
भक्ति के कारण प्रल्हाद के मन में विवेक, वैराग्य, आनंद जैसे गुण विकसित हुए ।भोग के प्रति आसक्ति नष्ट हुई । भगवान विष्णुने प्रसन्न होकर ‘तू परमपदतक पहुंचेगा’ ऐसा वरदान दिया । ईश्वर के दर्शन से प्रल्हाद का अहंकार नष्ट हुआ । वह शांत, सुखी,समाधिस्थित हुआ । ऐसी परिस्थिति में अधिक समय बीत गया । उस समय असुरोंने उसे जागृत करने का प्रयास किया । असुरों का कोई भी शासनकर्ता नहीं रहा । देवताओंको असुरों का भय नहीं रहा । शेषशय्यापर निद्रिस्त श्रीविष्णु जगे और उन्होंने मन में तीनों लोगों की स्थिती का अवलोकन किया, ‘दैत्यों का सामर्थ्य अल्प हुआ है और देवता शांत हुए हैं । उन्होंने असुर एवं मानव का द्वेष करना छोड दिया है । ऐसी स्थिती में पृथ्वीपर होनेवाले यज्ञयागादि क्रिया बंद होगी । भूलोक नष्ट होगा । ये त्रिभुवन कल्पांततक है,परंतु इस संकल्प को बाधा आएगी । इसी कारण प्रल्हाद को सावधान करना होगा ।’ इसके उपरांत श्रीहरी पाताल में जा पहुंचे । उन्होंने प्रल्हाद को उसका राज्य एवं शरीर का स्मरण दिया । श्रीविष्णुजीके आज्ञा के अनुसार प्रल्हाद का राज्याभिषेक हुआ । भय, क्रोध,कर्मफल से विमुक्त होकर उसने राज्य किया और अंत में परमपदतक पहुंचा । इसी प्रकार उन्होंने स्वप्रयत्न से सर्व प्राप्त कर लिया ।
सीख : उपासना के योग से ईश्वर की कृपा प्राप्त कर ज्ञान संपन्नता आती है । आत्मज्ञान प्राप्त होने हेतु स्वयं के प्रयासों एवं विचारों की आवश्यकता होती है । प्रयत्न करनेपर ही ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है ।