बारूद (विस्फोटक) बनानेवाली पहली भारतीय सत्ताधीश (शासक) झांसी की रानी लक्ष्मीबाई !
बारूद (विस्फोटक) की निर्मिति चीन में १२वीं शताब्दी में हुई । तदुपरांत लगभग २०० वर्षों के पश्चात यह विज्ञान अरब देशों तथा यूरोपियन देशों में पहुंचा; किंतु भारतीय सत्ताधीश इस विषय में पूर्णतः अनभिज्ञ थे । इ.स. १५२६में बाबर ने भारतपर बंदूकों के बलपर आक्रमण कर उसे पादाक्रांत किया । बारूद के युद्ध में झांसी की रानी का महत्त्वपूर्ण योगदान था । वे पहली भारतीय शासक थीं, जिन्होंने भारत में बारूद बनाने के लिए पहली बार भारत में प्रयत्न किया; किंतु उनका कालखंड अत्यंत छोटा होने के कारण उसका अधिक प्रभाव नहीं पडा ।
‘बाणापुर के राजा मर्दन सिंह जूदेव को भेजे पत्र में रानी लक्ष्मीबाई कहती हैं, ‘विदेशियों की गुलामी में रहिबो अच्छो नहीं है, उनसे लडको अच्छो है’, (विदेशियों की दास्यता में रहना अच्छा नहीं है, अपितु उनसे लडना अच्छा है !) इससे उनके विचार समझ में आते हैं ।
रानी होते हुए भी ब्राह्मण का आदर करनेवाली रानी लक्ष्मीबाई
कुंच में परास्त होनेपर काल्पीकी ओर जाते समय मार्ग में एक कुएं के पास अचानक गोडसे भटजी (पंडितजी ) और रानी लक्ष्मीबाई की भेट हुई । उन्होंने कुएं से पानी निकालकर दिया, तब उसे नकारकर रानी ने कहा, ‘‘आप पंडित हैं, विद्वान हैं, आपके द्वारा निकालकर दिया पानी मैं नहीं पिऊंगी । मैं ही निकालती हूं ।’’
उनका कहना था कि ‘मेरे पास जागीर थी, वह मेरे जीवनयापन के लिए बहुत थी और फिर मुझ समान विधवा को संपत्ति की आवश्यकता भी नहीं थी । परंतु हिंदु धर्म के अभिमानवश प्रवृत्त हुई धी । परंतु ईश्वर ने सफलता नहीं दी ।’
बचपन में शस्त्र और घुडसवारी का प्रशिक्षण लेना
‘मोरोपंत तांबे की कन्या ‘छबेली’ अथवा ‘मनू’ इन नामों से परिचित थी । लिखने-पढने के साथ उन्होंने शस्त्र और घुडसवारी का भी प्रशिक्षण लिया । झांसी के राजा श्री. गंगाधरराव नेवाळकर के साथ उनका विवाह हुआ । उनके दत्तकपुत्र का नाम दामोदर था । पुत्र की दत्तक विधि संपन्न होने के उपरांत गंगाधरराव का निधन हो गया था ।
रानी ह्यू रोज से लडने के लिए सिद्ध होना
डलहौसी ने संस्थान खालसा किया । उस समय रानी की पत्रव्यवहार के विषय में चतुरता देखनेपर, उनकी बुद्धिमानता का अनुमान करना संभव होता है । उत्तर हिंदुस्थान के सुलगते संघर्ष में और एक चिनगारी पडी । रानी का नानासाहेब (पेशवा) और तात्या टोपे के साथ संपर्क था । ह्यू रोज द्वारा झांसीपर आक्रमण होते ही ‘मेरी झांसी नहीं दूंगी’, ऐसा कहते हुए रानी सर्वसाधारण नागरिकों के साथ लडने के लिए सिद्ध हुई । घमासान लडाई हुई ।
काल्पीकी ओर निकल पडी रानीपर पुन: ग्वालियर में आक्रमण होना
झांसी परास्त होते ही, वह दत्तकपुत्र के साथ बडी चतुरता से निकालकर १०७ मील दूर काल्पी पहुंची । वहांपर तात्या से भेट हुई । तीन दिनकी लडाई के उपरांत काल्पी का पराभव हुआ । संपूर्ण बुंदेलखंडपर अंग्रेजों का राज्य आ गया । तात्या और रानी ग्वालियर की ओर निकल पडे । ग्वालियरपर ह्यू रोज और ब्रिगेडियर स्मिथ ने आक्रमण किया । कोटाकी सराई में रानी के साथ उनकी लडाई हुई । इसके पूर्व रानी शरण में आए, इसलिए उसके पिताजी को बंदी बनाया गया । आगे उन्हें फांसी दी गई ।
अतुलनीय पराक्रम दिखानेवाली रानीद्वारा ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ कहते हुए प्राणार्पण करना
लडाई करते समय रानी को घेर लिया गया । एक सैनिक की बंदूक का बायोनेट उनकी करवट में घुस गया, रक्त उफनकर बहने लगा । घावलगानेवाले को उन्होंने मार डाला । उनकी दासी को गोली लगते ही, उन्होंने गोली चलानेवाले के दो टुकडे कर दिए । इतने में उनकी बाईं जांघ में गोली घुस गई । गोली चलानेवाले को भी उन्होंने मौत के घाट उतार दिया । तभी पीछे से उनके सिरपर प्रहार किया गया । इससे उनकी दाईं आंख लटकने लगी । इस अवस्था में भी प्रहार करनेवाले का कंधा उन्होंने काट डाला । इसके पश्चात बचे हुए सैनिक भाग गए । रक्त से लथपथ रानी को बाबा गंगादास की कुटिया में लाया गया । वहांपर उसके मुख में गंगोदक डाला गया । ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ कहते हुए रानी ने अपने प्राण त्याग दिए ।
इस पराक्रम की स्मृति में नेताजी सुभाषचंद्र बोसजी ने आजाद हिंद सेना में स्त्रियों का ‘रानी लक्ष्मीबाई’ नाम का पथक निर्माण किया ।
कवियोंद्वारा गौरवान्वित रानी लक्ष्मीबाई
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई : ‘केवल अठ्ठाईस वर्ष की आयु प्राप्त रानी के मृत्युस्थानपर विद्यमान चबूतरेपर कविवर्य भा. रा. तांबे की कविता की कुछ पंक्तियां हैं, जिनका भावार्थ इस प्रकार है ।
अर्थ : हे हिंदु बंधु, कुछ क्षणों के लिए इस स्थानपर ठहर जाओ । दो अश्रु बहाओ । यहांपर उसी पराक्रम की ज्योति का अस्त हुआ है, जिसका नाम झांसीवाली था ।
रानी का गौरव- खूब लडी मर्दानी, कह तो झांसीकाली रानी थी ।
इस प्रकार से हिंदी में सुभद्राकुमारी चौहान ने गौरवशाली झांसी यह कविता लिखी । इस कविता के अंत में वे लिखती हैं,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको,
जो सीख सिखानी थी ।
बुंदेल हरबोलों के मुख,
हमने सुनी कहानी थी ।
खूब लडी मर्दानी,
वह तो झांसीकाली रानी थी ॥
– डॉ. सच्चिदानंद शेवडे (श्रीगजानन आशीष, जनवरी २०११)