संस्कृत भाषा के एक महाकवि एवं नाटककार के रूप में पहचाने जानेवाले संत कालिदास विक्रमादित्य के दरबार में उनके नवरत्नों में से एक थे । उनका जीवनवृत्तांत, कवित्व तथा उनकी चतुरता के बारे में अनेक कथाएं प्रचलित हैं ।
कालिदासजी का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ । श्रुति, स्मृति, पुराण, सांख्य, योग, वेदांत, संगीत, चित्रकला इत्यादि शास्त्र एवं कलाओं के वे उत्तम ज्ञाता थे । उन्हें विद्या तथा विद्यागुरु के प्रति नितांत आदर था । उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को शास्त्राभ्यास की, कलापरिचय की एवं सूक्ष्म अवलोकन की जोड मिली थी । भावकवि, महाकवि एवं नाटककार, इन तीनों भूमिकाओं को उन्होंने समानरूप से एवं सफलतापूर्वक जीवन में उतारा हैं ।
भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधिक कवि कालिदास
कालिदास भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधिक कवि हैं । उनके काव्य का समाज श्रुतिस्मृतिप्रतिपादित नियमों का अनुसरण करनेवाला है । इस समाज के लिए उन्होंने अनेक स्थानोंपर दिव्य जीवन विषयक संदेश दिया । कालिदास का प्रत्येक कृत्य त्यागप्रधान प्रेम की महानता कथन करनेवाला है । कालिदास का संदेश यही है कि, त्याग एवं तपस्या के अतिरिक्त कोई भी बात उज्ज्वल नहीं हो सकती । राजा एवं राज्यपद के विषय में कालिदास के विचार मनु समान ही हैं । अनेक स्थानोंपर उन्होंने मनुका उल्लेख किया है । कालिदास की मान्यता है कि ईश्वर से ही राजा को राज्याधिकार प्राप्त होता है ।
प्रा. ए. बी. कीथ के मतानुसार कालिदासद्वारा दिलीप राज्य के रूप में एक कर्तव्यनिष्ठ आदर्श प्रजापालक का चित्र रेखांकित किया गया है । उसका रघुराजा सद्गुणों का पुतला ही है; वह प्रजा का खरा पिता था ।
कालिदास के काव्य में उनकी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का स्थान-स्थानपर भान होता है । उनकी विशेषताओं में प्रकृति का अवलोकन करके, उसमें से मार्मिक अंश ग्रहण करना इत्यादि हैं । उनके काव्य में मानव एवं प्रकृति मानो एकात्म होकर आगे आते हैं । कालिदास की प्रतिभा सर्वतोमुखी है । उनकी शैली को साहित्याचार्योंने आदर्शभूत घोषित कर, उसे ‘वैदर्भी रीति’ नाम दिया गया है । कालिदास का ‘रघुवंश’ महाकाव्य भारतीय टीकाकारोंने सर्वोत्कृष्ट माना है । इस काव्य के कारण उन्हें ‘कविकुलगुरु’ उपाधि प्राप्त हुई; अपितु टीकाकार उसे ‘रघुंकार’ कहना ही अधिक पसंद करते हैं । ‘क इह रघुकारे न रमते ’ – रघुकार कालिदास के स्थानपर कौन रममाण नहीं ? ऐसी उस विषय में उक्ति है । इससे इस काव्य की लोकप्रियता ध्यान में आती है । रघुवंश में नायक अनेक हैं, तब भी उस उन्नीस सर्ग के महाकाव्यमें का एकसूत्रता कहीं भी न्यून नहीं होती है । इसके लिए कालिदास को ‘रसेश्वर’ पदवी प्राप्त हुई हैं ।
वैदर्भी कविता स्वयं वृतवती श्रीकालिदासं वरम् । |
अर्थ – वैदर्भी कविता से कालिदास इस वरको स्वयं ही वर लिया है ।
उनके काव्य में पढकर निकाले अर्थ की अपेक्षा जो वास्तविक है उसको ही अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है । उन्होंने उपयोग किए विपर्यय (विलोम) यह भी सुलभ; परंतु बडा आशय व्यक्त करते हैं । उदा. – कालिदास की रचनाएं
न हरीश्वरव्याहृतय: कदाचित् पुष्णन्ति लोके विपरीतमर्थम् । |
अर्थ – महात्माओं के वचन किसी भी देश-काल अवस्था में कभी भी मिथ्या नहीं होते ।
क्रियाणां खलु धम्र्याणां सत्पत्न्यो मूलकारणम् । |
अर्थ – धार्मिक क्रियाओं के लिए पतिव्रता स्त्री मुख्य साधन होती है ।
प्रतिबध्नाति हि श्रेय पूज्यपूजाव्यतिक्रम: । |
अर्थ – पूज्य व्यक्तियोंकी पूजा में (श्रेष्ठों को मान देने में) यदि उलंघ्न हो गया, तो अतिक्रम करनेवाले व्यक्ति के कल्याण को प्रतिबंध करता है ।
यह और ऐसे ही उनके अनेक लोकोत्तर गुणोंपर लुब्ध होकर जयदेवने कालिदास को ‘कविताकामिनी का विलास’ कहा है । बाणभट्टने उनके काव्य को ‘मधुरसान्द्रमंजिरी’ की उपमा दी है । राजशेखरने उन्हें रससिद्ध सत्कवि के अग्रभागी ले जाकर बिठाया है । उसके विषय में आगे दिया सुभाषित तो सुप्रसिद्ध ही है –
पुरा कवींना गणनाप्रसंङगे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदास:।
|
अर्थ – पूर्व में कवि के गणनाप्रसंगी कनिष्ठकापर कालिदास को अधिष्ठित किया गया; (परंतु) अबतक उनकी समानता के कवि निर्मित न होने के कारण अगली अंगुली जो अनामिका है वह खरे अर्थमें अनामिका ही सिद्ध हुई ।यह रससिद्ध कवीश्वर इस प्रकार रसिकों के हृदय में अजय-अमर हुए हैं ।
संदर्भ – भारतीय संस्कृतिकोश, खंड क्र.२