एक साधु के पास एक जिज्ञासु युवक आया और उसने साधु से पूछा, ‘‘क्या मुक्ति प्राप्त करने के लिए वन में जाना चाहिए ?’’ साधुने कहा, ‘‘तुम्हें ऐसा किसने कहा ? ऐसा होता तो क्या राजा जनक को राजवैभव में रहकर भी मुक्ति प्राप्त होती ?’’ साधु का यह उत्तर सुनकर वह जिज्ञासु चला गया । कुछ समय उपरांत दूसरा एक जिज्ञासु व्यक्ति उसी साधु के पास आया । उसने वही प्रश्न साधु से पूछा, ‘‘योगीराज, मुक्ति प्राप्त करने के लिए घर गृहस्थी का त्याग कर वन में तपश्चर्या को जाना आवश्यक है क्या ?’’ इसपर साधूने कहा, ‘‘निश्चित ही! नहीं तो शुक-सनकादि समान अधिकारी साधक जो मुक्ति प्राप्त करने हेतु वन में गए, वे क्या मूर्ख थे ?’’ एकही प्रश्न को साधुमहाराजद्वारा दिए हुए दो भिन्न एवं विरूद्ध उत्तर सुनकर उस साधू का शिष्य सोच में पड गया । उस दूसरे युवक के वहां से जाते ही शिष्य ने साधु से पूछा, ‘‘गुरूदेवजी ! आपके पास आए उन दोनों साधकों के प्रश्न एक ही होते हुए आपने उन दोनों को भिन्न एवं विरूद्ध उत्तर क्यों दिए ? उनमें से सत्य उत्तर कौनसा है ?’’ इसपर साधुने कहा, ‘‘बेटा ! मेरे दिए हुए दोनों उत्तर सत्य हैं । मेरे पास जो प्रथम प्रश्नार्थी आया था, उसमें घरगृहस्थी संभालकर भी जीवनमुक्ति के लिए आवश्यक साधना करने की क्षमता थी, परंतु तत्पश्चात् आए युवक को घरगृहस्थी बसाकर जीवनमुक्ति के लिए आवश्यक साधना करना कठिन होता; इसीलिए मैंने उन्हें उनकी क्षमतानुसार उदाहरण देकर समझाया ।’’
– डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (इ.स. १९९०)