एक राजा एवं सेठ में दृढ मित्रता थी । सेठ का चंदन की लकडी का व्यवसाय था । ४-५ वर्षोंतक उसकी लकडी का विक्रय ही नहीं हुआ । उसने सोचा कि, ये लकडी कीमती है । इसे कौन खरीदेगा ? इसे केवल राजा ही खरीद सकता है । उसने आगे सोचा कि, यदि राजा मर गया, तो उसे जलाने हेतु चंदन की लकडी की आवश्यकता होगी । इससे मेरा व्यापार भी अच्छा होगा ।
इधर राजा के मन में भी सेठजी के विषय में बुरा भाव उत्पन्न हुआ कि, यह सेठजी नि:संतान है । यदि यह मर गया, तो इसका धन राज्य भंंडार में जमा होगा । दोनों के भी मन में ऐसे बुरे विचार आए । एक दूसरे से मिलनेपर उन्होंने अपने-अपने विचार एक दूसरे को बताए ।
राजा के मन में ऐसे विचार आने का कारण था, सेठजी के मन में राजा के विषय में बुरे विचार आना; अत: राजा के मन में उसकी प्रतिक्रिया आई । राजाने सेठजी को समझाया कि, मन में बुरे विचारों की अपेक्षा अच्छे विचार लाएं, उदा. राजा अपने महल के दरवाजे चंदन के बनाएं तथा मेरे सारे चंदन का विक्रय हो ।
– (पू.) डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (खिस्ताब्द १९९०)