डॉ. हेडगेवार : एक असामान्य व्यक्तित्व

हमारे समाज का पुनरुत्थान करने हेतु विशाल जनसमुदाय को एकत्रित लाने के लिए आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार का कठोर प्रयास था । इसमें उनका किसी भी प्रकार का व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था । हम त्याग, समर्पण,स्वार्थ का समूल उच्चाटन ऐसे शब्दों का प्रयोग करते है; परंतु इन शब्दों का प्रयोग करने के लिए प्रथमतः हमारा आत्माभिमान जीवित रहना आवश्यक है ।डॉ. हेडगेवार स्वयं हिंदू समाज के जीवन तत्वों से एकरूप हो चुके थे । उनके जीवन के अगणित पहलुओं को प्रकट करते समय इस त्रोटक शब्दसागर में उनके व्यक्तित्व का संपूर्ण दिव्यतत्त्वों का प्रदर्शन नहीं हो पाया है ! हमें ऐसा कहना चाहिए,‘ऊपर से शांत परंतु भीतर से दहकते हुए उनके जीवन के अनुभव को कथन करने की अपेक्षा हमें उसे स्वयं जान कर, प्रत्यक्ष अनुभव करने समान था,’ ऐसा कहना होगा ।

सात्त्विक एवं आस्तिक डॉ. हेडगेवार

डॉक्टर स्वभाव से सात्त्विक एवं आस्तिक थे । भगवान के अधिष्ठानपर उनकी निरंतर श्रद्धा थी । ‘श्री’ अथवा ‘ॐ’ लिखे बिना वे किसी खत अथवा दैनंदिनी लिखने को आरंभ नहीं करते थे ।

संघकार्य के विषय में डॉ. हेडगेवारजी का दृष्टिकोण

‘संघकार्य, यह दैवी कार्य है’, उनकी ऐसी दृढ श्रद्धा उनके संभाषण एवं पत्रों से अनेकबार प्रकट होती थी । उनकी सदा यह धारणा रहती थी, ‘हम सभी परमेश्वर के हाथों की कठपुतलियां हैं तथा उनके दिशादर्शन के अनुसार ही हमसे विविध कृत्य हो रहे हैं ।’ संघ का कार्य ईश्वरी कार्य है, ऐसी घोषणा करते समय, ‘सज्जनों की रक्षा एवं दुष्टों का नाश करनेवाला ईश्वरी कार्य ही संघद्वारा हो रहा है’, यह अर्थ भी उन्हें अपेक्षित था । डॉ. हेडगेवारे दासबोध के सार का अध्ययन कर उसे (स्वामी रामदासजीद्वारा लिखित ग्रंथ) अपने स्वभाव में उतारने को प्रयास करते थे । ‘यत्न तो देव जाणावा’ व ‘अचूक यत्न तो देवो ।चुकणे दैत्य जाणिजे’ (अर्थ प्रयत्न करना ही परमेश्वर को अपेक्षित है; तथाचूक होना, यह आसुरी कृत्य है ।) संघ का कार्य ईश्वरी कार्य है’ ऐसी घोषणा करते समय दासबोध की इन पक्तियों का अर्थ उनकी दृष्टि के समक्ष आना सहज संभव था ।

लोकसंग्रह  की विशेषताएं

सभी प्रकार के लोगों से संपर्क रखना, यह उनका स्वभाव था । इस स्वभाव से उनकेद्वारा सहजभाव से कृत्य होते थे । किसी विक्रयी के समान उनके व्यवहार में उधारी अथवा दिखावा नहीं था । वे ऐसा उत्तम व्यवहार सिखानेवाले ग्रंथों से भी अधिक अनुकरणशील थे । इसप्रकार लोगों से उनका अटूट नाता था ।इसमें अपूर्वता, सहजता तथा आकर्षण थे । ‘प्रत्येक हिंदू का मार्ग भिन्न-भिन्न है, जो केवल अंतयात्रा निकलनेपर ही एक होता है’ ऐसी दुःस्थितिवाले समाज में १५ वर्षो में हिंदूराष्ट्र के उत्थान के लिए सहस्रो युवाओं के संगठन की रचना डॉक्टरजी ने संभव कर के दिखाई, यही उनकी असामानता है !’

संदर्भ : साप्ताहिक सनातन प्रभात, २००६, अंक २९.