राजा हिरण्यकश्यपु को प्रल्हाद नाम का पुत्र था । हिरण्यकश्यपु ने घोर तप कर भगवानजी को प्रसन्न कर उनसे वर मांगा था कि ‘मुझे न किसी मनुष्य से अथवा पशु से, न प्रातः और न रात्रि में, न घर में और न बाहर मृत्यु आए । इन स्थितियों में उसे लगा कि, उसे कोई नहीं मार सकता ! इससे यह राजा अहंकारी हो गया ! ‘वह देवों से भी बढकर है’ ऐसा उसे भ्रम होने लगा । भगवान का कोई भी नामजप उसे असह्य हो जाता था । फिर भी, राजपुत्र प्रल्हाद सदैव भगवान के चिंतन में लगा रहाता था । वह ‘नारायण नारायण’ नामजप करते हुए ही अपने दैनंदिन कृत्य करता था । किंतु, उसके पिता नामजप से घृणा रखते थे । इसलिए, वह उनके सामने नहीं आता था । फिर भी कभी-कभार राजा की प्रल्हाद से भेंट हो जाया करती थी । प्रल्हाद के नामजप से राजा क्रोधित हो जाता थे तथा अपने पुत्र को कठिन से कठिन दंड देने की आज्ञा सेवकों से करते थे ।
एक दिन नामजप में तल्लीन प्रल्हाद, राजा का आगमन होते समय सतर्क नहीं था । प्रल्हाद के मुख से नामजप सुनते ही राजा ने सेवकों को आज्ञा दी, पर्वत की ऊंची चोटी से प्रल्हाद को नीचे ढकेल दिया जाए; तदुपरांत उसका वृत्तांत मुझे सूचित किया जाए ।सेवकों ने आज्ञा का पालन कर राजा को सूचित किया । कुछ क्षण के उपरांत महल के छज्जे में खडे राजा को प्रल्हाद दूर से राजभवन की ओर आता दिखाई दिया । प्रल्हाद को जीवित देख राजाने सेवकोंपर अत्यंत क्रोधित हुआ । यह कैसे संभव हुआ, यह जानने के लिए प्रत्यक्ष पुत्र से ही पूछने का विचार कर उसने सेवकों को आज्ञा दी कि ‘‘प्रल्हाद के आनेपर उसे मेरे सामने खडा किया जाए ।’’ राजमहल में प्रवेश करनेपर प्रल्हाद राजा के सामने आकर विनम्रता से खडा हो गया ।
राजा ने उससे पूछा, ‘‘सेवकों ने तुम्हे पर्वत की चोटी से ढकेल दिया था अथवा नहीं ?’’ प्रल्हाद ने उत्तर दिया, ‘‘ढकेला था ।’’ राजा ने पुनः पूछा, ‘‘फिर तुम यहां वापस कैसे आ गये ?’’ प्रल्हाद ने मुस्काते हुए उत्तर दिया, ‘‘मुझे जब सेवकों ने पर्वत की चोटी से ढकेल दिया, उस समय मैं हलके से एक पेडपर जा गिरा । जब उस पेड से उतरा, तो वहां से एक बैलगाडी जा रहीं थी; उसी में बैठकर मार्गपर आ गया । फिर वहां से यहां कैसे आया, पता नहीं । परंतु कोई सदैव मेरे साथ है, ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा था । इसलिए, मैं यहां शीघ्र आ सका ! राजा निराश हो गया । उसने प्रल्हाद को जाने के लिए कहा ।
कुछ दिन बीत गए । एक दिन की बात है, राजसी लोगों के लिए जहां भोजन पकाया जाता था, वहां प्रल्हाद कुछ काम करने गया था । उस समय राजा की दृष्टि उसपर पडी । प्रल्हाद ‘नारायण नारायण’ नामजप करते हुए जा रहा था । राजा पुनः क्रोधित हो गया । उसने सेवकों को आज्ञा दी, ‘‘प्रल्हाद को सामने की कडाही के उबलते हुए तेल में फेंक दो ।’’ सेवक घबरा गए, क्योंकि प्रल्हाद को उबलते हुए तेल में फेंकते समय कहीं उनपर ही तेल न पड जाए ! परंतु वे भी क्या करते ? राजा की आज्ञा का पालन करना ही पडता है ! उन्होंने प्रल्हाद को उबलते हुए तेल में फेंक दिया ! ‘अब इसे कौन बचाने आता है’ यह देखने के लिए उस समय राजा स्वयं उपस्थित था । चारों ओर से उबलता हुआ तेल बाहर आ गया । जलने से सेवक चिल्लाने लगे; परंतु प्रल्हाद शांत खडा था । यह देख राजा दंग रहा गया । देखते-देखते कढाही में एक कमल दिखाई देने लगा ! उस कमलपर प्रल्हाद शांतभाव से खडा था । यह देखकर राजा पुनः चिढा एवं क्रोध में अपने परिवार के साथ वहां से चला गया ।
राजा की प्रल्हादपर सतत दृष्टि रहती थी । अंत में, एक दिन राजाने अपने पुत्र प्रल्हाद से पूछा, ‘‘बेटा, बता, कहां है तेरा भगवान ?’’ प्रल्हाद ने कहा, ‘‘सभी स्थानपर !’’ राजा ने समीप के खंभे को लात मारकर पूछा, ‘‘दिखा, इस खंभे में तेरा भगवान ।’’ तभी भयंकर गर्जना करते हुए भगवान नरसिंह उस खंभे से प्रकट हुए । उनका शरीर मानव का तथा मुख सिंह का था । (अर्थात्, वे न मानव थे और न पशु ) वह स्थान महल की ड्योढी थी ( अर्थात्, न घर था और न घर का बाहरी स्थान ), वह समय न दिन था और न रात्रि, प्रातःकाल (अर्थात न सुबह एवं रात्री को) था । एवं बिना शस्त्र ऐसे वर के सभी नियमों की पुर्तता कर भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यपु का पेट में नख नोचकर, पेट फाडकर उसका वध किया ।
बच्चो, प्रल्हाद की नामसाधना से भगवान नारायण ने प्रत्येक समय प्रल्हाद की सुरक्षा की । यदि हम भी नामस्मरण करें तो आपातकाल में प्रभु हमारी रक्षा करेंगे !