द्युत में (जुए में) हारने के पश्चात दुर्योधन ने द्रौपदी को राज्यसभा में लाने का आदेश दिया । अत: दुःशासन उसे घसीटता हुआ राज्यसभा में लेकर आया । ऐसा न करने हेतु द्रौपदी निरंतर विनती कर रही थी; किंतु उनपर उसका कुछ भी परिणाम नहीं हुआ । द्रौपदी ने सोचा, `मेरे पांच पति हैं, वे पूरे विश्व में श्रेष्ठ हैं । वे निश्चय ही मेरी रक्षा करेंगे ।’ उसने युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव इन सबको सहायता करने की विनती की; किंतु कोई आगे नहीं आया । उसने सारे ज्येष्ठों को भी आवाज दी; किंतु सभी जन गर्दन नीचे झुकाकर बैठे थे । अंतत: उसने श्रीकृष्ण को आवाज दी । वह तुरंत दौडकर आए । उन्होंने द्रौपदी के वस्त्रों की आपूर्ति कर उसकी रक्षा की । उसने श्रीकृष्ण से पूछा, “हे भगवन मैं संकटमें हूं, यह मालूम होते हुए भी तुम मेरी सहायता करने क्यों नहीं आए ?’’ उसपर श्रीकृष्ण ने कहा, “तुम्हें तुम्हारे पतियोंपर विश्वास था, तुमने उन्हें बुलाया; तो मैं कैसे आ सकता हूं ? तुमने जब मुझे आवाज दी तो मैं तुरंत आ गया ।’’ द्रौपदी ने श्रीकृष्ण के चरणों में कृतज्ञता व्यक्त की ।
तात्पर्य : भगवान के अतिरिक्त अपना कोई नहीं होता । जिन्हें हम अपना कहते हैं, वे भी समय आनेपर हमारी सहायता नहीं करते । किसी को भी बार-बार आवाज देनेपर , न्यूनतम एक बार तो उस व्यक्ति को पीछे मुडकर देखना ही पडता है । भगवान एक बार आवाज लगाने से ही आ जाते हैं; किंतु हम उन्हें छोडकर अन्य सभी को बुलाते रहते हैं । यदि हम निरंतर भगवान को आवाज लगाएं, तो क्या वह सदैव अपने पास नहीं रहेंगे ? तो अभी से नामजप करेंगे ना ?