‘कैकयी को दिया वचन पूरा करने हेतु प्रभु श्रीरामचंद्र अपने भाई लक्ष्मण तथा पत्नी सीता के साथ वनवास जाने को निकले । प्रभु श्रीराम वनवास के मार्गपर गंगा नदी के सम्मुख आए । साक्षात प्रभु श्रीराम आए हैं, यह ज्ञात होते ही गुहक खेवैया को बडा आनंद हुआ । वह दौडकर उनके पास आया तथा उन्हें साष्टांग प्रणाम कर कहा,“प्रभु, आपके दर्शन से मैं धन्य हो गया ! मैं आपकी क्या सेवा करूं ?”
प्रभु श्रीराम बोले,“गुहक, तुम से दूसरी किसी प्रकार की सेवा की हमारी अपेक्षा नहीं । अपनी नाव से केवल हमें गंगा के उसपार पहुंचा दो ।’’ अत: गुहक ने उन तीनों को गंगा के उसपार पहुंचा दिया । वहां पहुंचनेपर उनमें आगे दिया संभाषण हुआ ।
राम : गुहक, नाव से हमें गंगा नदी के इसपार पहुंचाने के पुरस्कार स्वरूप मैं तुम्हें क्या
दूं ?
गुहक : प्रभु, एक नाई दूसरे नाई के केश काटता है, तो क्या वह उससे कुछ लेता है ?
श्रीराम : नहीं ।
गुहक : प्रभु, एक वैद दूसरे वैद को दवाई देता है, तो क्या उससे दवाई के बदले में कुछ लेता है ?
श्रीराम : नहीं ।
गुहक : तो उसी प्रकार मैं तथा आप दोनों ही खेवनहार हैं; मैं आपसे क्या तथा कैसा पुरस्कार लूं ?
(गुहक के इस वक्तव्य से श्रीराम को आश्चर्य हुआ । )
श्रीराम : गुहक, तुम खेवनहार हो, यह बात तो सही है; किंतु तुमने मुझे भी खेवनहार कैसे बना दिया ?
गुहक : प्रभु, मैं लागों को नदी के उसपार पहुंचाता हूं; किंतु आप इच्छुक यात्रियों को भवसागर के, अर्थात संसाररूपी सागर के उसपार पहुंचाते हैं । तो क्या आप मुझसे श्रेष्ठ खेवनहार नहीं ?
गुहक का यह तर्क सुनकर तथा उसका निरपेक्ष प्रेम देखकर प्रभु श्रीराम ने उसे दृढ आलिंगन दिया । प्रभु श्रीराम का अलिंगन सुख अर्थात साक्षात जीव की -शिव से भेंट । गुहक को लगा जैसे उसका जीवन कृतार्थ हो गया हो । श्रीराम अवतार हैं, यह बात गुहक की समझमें आ गई । इस बातसे हमें पता चलता है कि उसका अध्यात्मिक स्तर कितना ऊंचा था । ’
– डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (ख्रिस्ताब्द १९९०)