बालमित्रों, भगवान शंकराचार्य भारतवर्ष की एक दिव्य विभूति हैं । उनकी कुशाग्र बुद्धि को दर्शानेवाली एक घटना है । सात वर्ष की आयु में ही शंकर के प्रकांड पांडित्य तथा ज्ञान सामथ्र्य की कीर्ति सर्व ओर फैलने लगी । इस ज्ञान और कीर्ति को केरल के राजा राजशेखर ने भी सुना । राजा शास्त्रों में रूचि रखनेवाला, विद्वान, ईश्वरभक्त, श्रद्धावान तथा पंडितों का आदर करनेवाला था । इसलिए राजा के मन में इस बालक को देखने तथा उससे मिलने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई ।
राजा राजशेखर ने अपने प्रधान को हाथी के साथ शंकर के पास भेजा तथा उसे राजप्रासाद में आने का निमंत्रण दिया । हाथी लेकर प्रधान शंकर के घर गया तथा नम्रता से उसने राजा का संदेश कह सुनाया । संदेश सुन शंकर बोला, ‘‘उपजीविका हेतु भिक्षाटन ही जिसका साधन है, त्रिकाल संध्या, ईश्वरचिंतन, पूजा-अर्चा तथा गुरुसेवा ही जिसके जीवन के नित्य व्रत हैं, उसे आपके इस हाथी से क्या सरोकार ? चार वर्णों के सर्व कर्तव्यों का पालन कर ब्राह्मणादि धर्ममय जीवन जी सकेंगे, ऐसी व्यवस्था करना, राजा का कर्तव्य है । मेरा यह संदेश अपने स्वामी से कहें ।”
राजा को दिए इस संदेश के साथ राजप्रासाद में आने का राजा राजशेखर का निमंत्रण भी उन्होंने स्पष्ट शब्दों में अस्वीकार कर दिया । इस उत्तर से राजा अत्यधिक प्रसन्न हो गया । उसके मन में शंकर के प्रति श्रद्धा और भी अधिक बढ गई । एक दिन प्रधान के साथ राजा स्वयं ही कालडी में शंकर के दर्शन हेतु गया । राजा ने देखा, एक तेजस्वी बालक सामने बैठा है । उसके चारों ओर बैठे ब्राह्मण वेदाध्ययन कर रहे हैं ।
राजा को देखते ही शंकर ने उनका नम्रता से, सम्मानपूर्वक स्वागत किया । उससे चर्चा करते समय राजा को शंकर का प्रकांड पांडित्य तथा अलौकिक विचारशक्ति समझ में आई । जाते समय उसने कुछ सोने की मुद्राएं शंकर के चरणों में अर्पण की तथा उन्हें स्वीकारने की विनयपूर्वक विनती की । शंकर राजा से बोले, “महाराज, मैं ब्राह्मण तथा ब्रह्मचारी हूं । इसका मेरे लिए क्या उपयोग ? आपने देवपूजा के लिए जो भूमि दी है, वही मेरे तथा मेरी माता के लिए पर्याप्त है । आपकी कृपा से मुझे किसी भी प्रकार का अभाव नहीं है ।”
शंकर का यह उत्तर सुनकर क्या बोले, यह राजा को न सूझा । अंत में हाथ जोडकर बोला, ‘‘आपके दर्शन से मैं धन्य हो गया; किन्तु एक बार जो वस्तु अर्पण कर दी, वह मैं वापस नहीं ले सकता, आप ही यह धन योग्य व्यक्ति को दे दें ।” मुस्कराते हुए शंकऱ तुरंत बोला, ‘‘महाराज, आप राजा हैं । कौन सुपात्र, कौन योग्य इसका ज्ञान आपको अवश्य होना चाहिए । मुझ जैसे ब्रह्मचारी को यह ज्ञान कहां ? विद्यादान यही ब्राह्मण का धर्म है तथा सत्पात्र को दान देना यह राजधर्म है । आप ही योग्य सत्पात्र को चुनकर यह धन दे दें ।”राजा निरुत्तर हो गया । उसने शंकर को वंदन कर वहां उपस्थित ब्राह्मणों में वह धन बांट दिया ।
बच्चों, अपेक्षा किए बिना विद्यादान करने का महत्त्व तुम्हें समझ आ गया होगा । हम भी ऐसा कर सकते हैं । जिस विषय का ज्ञान आपको अधिक है, और वह ज्ञान दूसरे के पास न हो, तो उसे यह ज्ञान देकर उसकी सहायता कर सकते हैं ।
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