पैठण में एकनाथ महाराज के एक शिष्य रहते थे। उन्हें सभी प्राणियों में परमेश्वर दिखाई देते थे। वे प्रत्येक को साष्टांग नमस्कार करते थे। इसलिए लोग उनका मजाक उडाते हुए उन्हें ‘दंडवत स्वामी’ कहते थे।
एक बार वे मार्ग में जा रहे थे, उस समय कुछ आवारा लोगों ने उनका मजाक उडाना निश्चित किया। वे स्वामिजी को एक मरे हुए गधे के पास ले गए। उन्होंने पूछा, ‘‘क्यों दंडवत स्वामी, उस मरे हुए गधे में भी परमेश्वर है क्या ?” ‘‘उसमें भी परमेश्वर है ’’, ऐसा कहकर स्वामिजी ने उस मृत गधे को नमस्कार किया। इससे वह मृत गधा तुरंत उठा तथा भागने लगा।
गधा जीवित हुआ, यह बात एकनाथ महाराज के कानोंपर आई। वे दंडवत स्वामी से बोले, ‘‘स्वामी आपने गधे को प्राणदान दिया यह बात अच्छी है, तो भी अब लोग आपको बहुत कष्ट देंगे। जिनके भी परिजन मृत होंगे, वे आपके पास आएंगे तथा मृत व्यक्ति को जीवित करने के लिए कहेंगे। आपकी सिदि्ध का अनुचित उपयोग होगा। यह सर्व टालने के लिए आप तुरंत समाधि ले लें।” ‘‘जैसी गुरु की आज्ञा !” ऐसा कहकर स्वामीजी ने एकनाथ महाराज के चरणोंपर मस्तक रखकर नेत्र बंद किए। एकनाथ महाराज ने आशीर्वाद देते हुए अपना हाथ उनके मस्तक पर रखा। कुछ ही क्षणों में स्वामीजी ने देहत्याग किया।
एकनाथ महाराजाजी से ब्रह्महत्या का भयंकर पाप हुआ था। पैठणवासियों ने उन्हें सुझाया कि शुद्ध होने के लिए उन्हें प्रायश्चित्त लेना होगा। उन्होंने एकनाथ महाराज को सभा में बुलाया। एकनाथ महाराज प्रसन्न मुख से सभा के समक्ष आकर खडे हो गए। सभा ने उन्हें ब्रह्महत्या के विषय में प्रायश्चित्त लेने का सुझाव दिया। एकनाथ महाराज ने शांति से कहा, ‘‘आपके द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त को मैं आनंद से स्वीकार करुंगा।” ब्रह्महत्या के लिए शास्त्रों में देहांत का दंड बताया गया है; परंतु इसी पैठण नगरी में ज्ञानदेव ने भैंसे के मुख से वेद बुलवाए तथा अपनी पवित्रता सिद्ध की। अब एकनाथ भी देवालय के समक्ष पाषाण नंदी को घास खिलाकर अपनी पावित्रता सिद्ध करें, नहीं तो आनेवाले प्रायश्चित्त के लिए सिद्ध हों, ऐसा सुझाव दिया। एकनाथ महाराज ने घास की एक मूठ ली एवं वे उस पाषाण के नंदी के निकट गए। ‘‘हे ईश्वर, अब आप इस घास का ग्रास लें”, ऐसा कहकर एकनाथ महाराज ने अपने हाथ की घास नंदी के मुख के निकट पकडा। नंदी ने जीभ लंबी कर नाथ के हाथों की घास मुख में ली। वह घास चबाकर खाने लगा। पैठण के ब्राह्मण उनकी शरण गए। उसी समय एकनाथ महाराज नंदी से बोले, ‘‘हे ईश्वर, अब आप भी यहां न रहें। आपको भी साक्षात्कारी नंदी होने के कारण अन्यों की यंत्रणा सहनी पडेगी। आप नदी में जाकर जलसमाधि लें।” वह पाषाण का नंदी वहां से उठा एवं नदी में जाकर उसने जलसमाधि ले ली। इस दृश्य से एकनाथ महाराज का सामर्थ्य जिन्हें ज्ञात नहीं था उनकी भी आंखें खुल गर्इं।
बच्चो, एकनाथ महाराज का सामर्थ्य आपके ध्यान में आया ही होगा। ईश्वर भक्ति करने से ऐसा सामर्थ्य प्राप्त होता है। प्रत्येक में ईश्वर का रूप देखना सीखें।