‘वर्गप्रमुख, स्लेट एवं गुटचर्चा इन संकल्पनाओंको आधुनिक शिक्षापद्धतिमें बहुत महत्व दिखाई देता है; परंतु, इन संकल्पनाओंका मूल स्रोत क्या है ?
तो सुनिए, यह संकल्पना भारतीयोंकी हैं । १६२३ में, ‘पेट्रो डेला वाले’ इन नामका एक यात्री भारत आया था । उसने यहांकी शिक्षाव्यवस्था देखी । उसके लेखोंमें उपर्युक्त सभी बातोंका वर्णन मिलता है ।
इ.स. १८०० के आसपास ईस्ट इंडिया कंपनीके डॉ. बेल एवं लँकेस्टर इन दानोंने ब्रिटेनमें वर्गप्रमुख, स्लेट एवं गुटचर्चा जैसी शिक्षाकी संकल्पनाएं अपनानेका प्रयास किया था । उनमें इस बातको लेकर विवाद हुआ कि इसका श्रेय किसे दिया जाए ? तब उनके विवाद से संबंधित पूछताछसे ज्ञात हुआ कि मूलत: इसका सारा श्रेय भारतीयोंका है । उस समयके ईस्ट इंडिया कंपनीके एक अधिकारी ब्रिगेडिअर जनरल अलेक्जेन्डर वॉकर ने लिखकर रखा है, `मलबारके भारतीय ब्राह्मणोंके यहां देखी गयी यह शिक्षणपद्धति अवर्णनीय है ।
शिक्षा देनेकी इस पद्धतिसे समाजके अत्यंत निचले स्तरतक अत्यंत सरलता से शिक्षा पहुंचाई जाती है एवं हमें इन बातोंका विचार करना चाहिए ।’ अर्थात शिक्षा देनेकी पद्धतिमें भी हमने कितनी प्रगति की थी एवं हमारा क्या दृष्टिकोण रहता था, देखो। सर्वत्र पाठशालाएं थीं । श्रीरंगपट्टनम् नगरके विषयमें बताया जाता है कि ‘यहां समाजके सभी वर्ग के लोग पढने आते थे । यहं उन्हें नौकानयन, वैद्यकशास्त्र, विधि, न्याय जैसे सभी विषय पढाए जाते थे । उसमें प्राथमिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा, इस प्रकारका विभाजन भी था । जिसे जहांपर, जिस विषयकी एवं जितनी शिक्षा लेनी हो, ले सकता था, इतनी व्यवस्था थी !’
– डॉ. दुर्गेश सामंत, रामनाथी, गोवा (त्र्यंबकेश्वर (जनपद नाशिक) में २६.४.२००७ को ‘स्वतंत्रतावीर सावरकर स्मृति मंच’की स्थापना की गई । उस समय किया हुआ भाषण)