‘संत तुकाराम महाराज ने देहू गांव के निकट के एक गन्ने के खेत की रखवालदारी की थी; इसलिए उस किसान ने उन्हें पच्चीस-तीस गन्ने बांधकर दिए । सुतली से (रस्सी से) बंधे गन्नों को कंधोंपर लादकर घर ले जाते समय मार्ग में खेल रहे बच्चों ने उनसे पूछा, ‘‘ हे तुकाराम, आप इतने गन्ने किसके लिए ले जा रहे हो ?’’
वे बोले, ‘‘बच्चो, आपके लिए ही । बंडू यह लो तुम्हारा गन्ना, गुंडू यह तुम्हें, यह लो धोंडू, तुम्हें भी… ये वाला तुम लो, यह तुम लो ।’’ ऐसा कहते हुए जब तुकाराम घर पहुंचे, तब उनके कंधेपर केवल एक ही गन्ना और गन्ने बांधने की रस्सी की बडी गेंडली बची थी ! यह कृत्य देख उनकी पत्नी आवळी अत्यंत क्रोधित हुई । हमें मिले हुए गन्ने दूसरों के बच्चों को देकर हमारे बच्चों के लिए कुछ नहीं लाया; इसलिए उसने उन्हें अपशब्द कहें और क्रोध के आवेश में उस गन्ने के टुकडे से उनके पीठपर प्रहार किया ।
ऐसा करनेपर गन्ने के तीन टुकडे हुए और एक टुकडा पत्नी के हाथ में रह गया और दो टुकडे भूमिपर गिर गए । तब संत तुकाराम महाराज ने उसे शांति से कहां, ‘‘आवळी, तुम कितनी बुदि्धमान हो ? अब तुमने एक जैसा बंटवारा किया । जो टुकडा तुम्हारे हाथमें बचा है, वह तुम्हारा और जो नीचे गिरे हैं उनमेंसे एक मेरा और दूसरा बच्चों का !’’ उनकी यह शांत प्रवृत्ती देखकर पत्नी को अत्यधिक पछतावा हुआ ।
तात्पर्य : ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ ऐसा अनुभव होने से संत तुकाराम महाराज ने अपने और दूसरों के बच्चों में भेदभाव नहीं किया ।’
– डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (वर्ष १९८०)