संत निवृत्तीनाथ संत ज्ञानेश्वर के बडे भाई तथा गुरु थे । गृहस्थी में मन नहीं लग रहा था; अत: निवृत्तीनाथ के पिताजी विठ्ठलपंत एक दिन घर से बाहर निकले तथा सीधे काशी की ओर निकल पडे । वहांपर रामानंद नाम के सद्गुरू रहते थे । विठ्ठलपंतने उनके द्वारा संन्यास दीक्षा प्राप्त की । उनके पास रहकर वे अध्ययन एवं उनकी सेवा करने लगे ।
बाद में गुरूकी आज्ञानुसार विठ्ठलपंत आलंदी आए तथा उन्होंने फिर से गृहस्थी का प्रारंभ किया । विठ्ठलपंत के चार बच्चे हुए । पहले निवृत्तीनाथ, दूसरे ज्ञानेश्वर, तीसरे सोपानदेव तथा चौथी मुक्ताबाई. `अपने बच्चों को उन्होंने कालानुसार सारी शिक्षा दी ।’
विठ्ठलपंत पत्नी तथा बच्चोंसमेत त्र्यंबकेश्वर स्थित पर्वतपर गए । उस पर्वतपर घना जंगल था । पर्वतपर घूमते-घूमते एक शेर दौडता हुआ दिखाई दिया । उसे देखकर सब डर गए । विठ्ठलपंत भी पत्नी बच्चोंसमेत भाग गए । जंगल से बाहर निकलने पर उनकी जान में जान आई । किंतु निवृत्तीनाथ कहीं दिखाई नहीं दिए । बहुत ढूंढनेपर भी निवृत्तीनाथ नहीं मिले । ऐसे सात दिन गए तथा आठवें दिन निवृत्तीनाथ सामने आकर खडे हो गए । सबको बडी प्रसन्नता हुई । वे अधिक तेजस्वी दिख रहे थे । विठ्ठलपंतने पूछा, ‘‘अरे इतने दिन तुम कहां थे ?” निवृत्तीनाथने कहा, ‘‘ पिताजी, शेर से डरकर भागते हुए मैं एक गुफा में घुसा । वहां एक स्वामीजी बैठे थे । उस अंधेरी गुफा में भी उनकी कांती मुझे स्पष्ट दिख रही थी । उनका नाम गहिनीनाथ था । उन्होंने मुझे योग की शिक्षा दी तथा ‘इस संसार में जो पीडित जीव हैं, उन्हें तुम सुखी करो ‘, ऐसा बताया ।”
बच्चों के उपनयन संस्कार का समय आया । उपनयन हेतु उन्हें लेकर विठ्ठलपंत आलंदी आए किंतु आलंदी के निष्ठूर लागोंने उनसे कहा, ‘‘तुमने संन्यासाश्रम छोडकर फिर से गृहस्थाश्रम का स्वीकार किया है । तुम्हें देह त्याग के प्रायश्चित्त के बिना दूसरा कोई प्रायश्चित्त नहीं । यदि तुम वह प्रायश्चित्त लोगे, तो ही बच्चों के उपनयन संस्कार होंगे ।’’ यह उत्तर सुनकर विठ्ठलपंत घर गए । बच्चे गहरी नींद में हैं, यह देखकर विठ्ठलपंत तथा रुक्मिणीबाईने अपने घर से बिदा ली । वे सीधे प्रयाग गए तथा उन्होंने गंगा में जलसमाधी ली ।
दूसरे दिन सवेरे जगनेपर बच्चों की समझ में आया कि अपने माता-पिता घर छोडकर गए हैं । उनके सरसे माता-पिता का छत्र ही हट गया । सारा भार निवृत्तीनाथपर आया था । निवृत्तीनाथने ज्ञानदेव, सोपानदेव तथा मुक्ताबाई का माता-पिता की तरह ममता से पालन किया ।
आगे जाकर गुरु निवृत्तीनाथ की आज्ञा से ज्ञानेश्वरने संस्कृत भाषा की श्रीमद्भगवद्गीता सबको समझने हेतु ‘ज्ञानेश्वरी’ यह अप्रतिम ग्रंथ मराठी में लिखा । इसके उपरांत ज्ञानेश्वरने ‘अमृतानुभव’ यह ग्रंथ लिखा । इसमें दस अध्याय तथा सात-आठसौ छंद हैं । उनमें गहन आध्यात्मिक अनुभव अंतर्भूत है । यह पूरे संसार के तत्त्वज्ञान से एक अपूर्व ग्रंथ है ।
बच्चों, छोटी उम्रमें निवृत्तीनाथ के माता-पिता घरबार छोडकर गए, किंतु वह घबराए नहीं और उन्होंने अपने भाई-बहन का पालन माता-पिता की तरह किया । यह केवल साधना के कारण ही हो सका । अत: साधना करना कितना आवश्यक है, यह समझमें आया ही होगा ।