कुछ भी करें, लोग आलोचना करते ही हैं; इसलिए उस ओर ध्यान न देते हुए स्वयं को जो योग्य लगता है, वैसा आचरण करना ही हितदायक है ।
एक बार एक पिता-पुत्र एक घोडा लेकर जा रहे थे । पुत्रने पिता से कहा ‘‘आप घोडेपर बैठें, मैं पैदल चलता हूं ।’’ पिता घोडेपर बैठ गए । मार्ग से जाते समय लोग कहने लगे, ‘‘बाप निर्दयी है । पुत्र को धूप में चला रहा है तथा स्वयं आराम से घोडेपर बैठा है । यह सुनकर पिता ने पुत्र को घोडेपर बैठाया तथा स्वयं पैदल चलने लगे । आगे जो लोग मिले, वे बोले, ‘‘देखो पुत्र कितना निर्लज्ज है ! स्वयं युवा होकर भी घोडेपर बैठा है तथा पिता को पैदल चला रहा है ।’’ यह सुनकर दोनों घोडेपर बैठ गए । आगे जानेपर लोग बोले, ‘‘ये दोनों ही भैंसेके समान हैं तथा छोटेसे घोडेपर बैठे हैं । घोडा इनके वजन से दब जाएगा ।’’ यह सुनकर दोनों पैदल चलने लगे । कुछ अंतर चलनेपर लोगों का बोलना सुनाई दिया, ‘‘कितने मूर्ख हैं ये दोनों ? साथ में घोडा है, फिर भी पैदल ही चल रहे हैं ।’’
तात्पर्य : कुछ भी करें, लोग आलोचना ही करते हैं; इसलिए लोगों को क्या अच्छा लगता है, इस ओर ध्यान देने की अपेक्षा ईश्वर को क्या अच्छा लगता है, इस ओर ध्यान दीजिए । सर्व संसार को प्रसन्न करना कठिन है, ईश्वर को प्रसन्न करना सरल है ।
– (पू.) डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (वर्ष १९९०)