छठवे शतक में चीनी यात्री हुसेन त्संग धर्मभूमि भारत का दर्शन करने गैबी का मरुस्थल पार कर भारत आया । बौद्ध तीर्थक्षेत्रों का भ्रमण करते करते बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय में आकर कुछ वर्ष उन्होंनें भारतीय परंपरा, समाज एवं कला इत्यादि का अध्ययन किया ।
नालंदा विश्वविद्यालय से लौटते समय भेंट स्वरूप उन्हें ४०० दुर्मिल ग्रंथ एवं १५० नयन मनोहर बुद्ध प्रतिमा मिलीं ।
कुछ भारतीय विद्यार्थियों के साथ वे स्वदेश लौटने लगे । सिंधू नदी पार करते समय उन्होंने भारतमाता को प्रणाम किया । जिस नौका में वे एवं विद्यार्थी बैठे थे, वह नौका महासागर में आनेपर डगमगाने लगी । उसी समय भयानक तूफान आरंभ हुआ । नौका कब डूबेगी यह कहना कठीन हो गया ।
पर्वत समान ऊंची लहरें उठने लगीं । नाविक चिल्लाकर कहने लगे, ‘‘नौका को हलका करना पडेगा । ग्रंथ एवं मुर्तियां पानी में फेंक दो ।’ अब नाविक यह अनमोल ग्रंथ एवं मुर्तियां सागर की लहरों में फेंक देगा, ऐसा दिखाई देते ही भारतीय संस्कृति के उपासक सभी विद्यार्थी तत्क्षण बोले, ‘भारत भूमि की यह दुर्मिल ज्ञान संपत्ती समुद्र में फेंकना, हम कभी भी सहन नहीं करेंगे ।’’
हुसेन त्संग कुछ कहते उससे पूर्व ही एक के उपरांत एक इस प्रकार उन सभी विद्यार्थियोंने उस अथाह समुद्र में कुदकर जलसमाधि ले ली । यह आत्मसमर्पण का दिव्य दृश्य वे विस्नेत्रों से देख रहे थे । उनके नेत्रों से बहनेवाले अश्रुओं ने उन समाधिस्थ विद्यार्थियों को श्रद्धांजली दी । ऐसा था हमारे प्राचीन विद्यार्थियों का संस्कृति की रक्षा के प्रति सर्वस्व का त्याग ! समय आनेपर ऐसी प्राणत्याग करने की भावना थी उनमें ! ऐसे अनेक अज्ञात शहीदों के समर्पण के कारण ही हमारी भारतीय संस्कृति एवं परंपराओं का राष्ट्रीय प्रवाह अखंड चल रहा है ।’
संदर्भ : दुधारी वचनामृतसे