भारत संतों की भूमि है । ऐसा होते हुए भी राष्ट्रहित के लिए कार्य करनेवाले संतों की संख्या बहुत कम है । उनमें से एक अर्थात समर्थ रामदास स्वामी ! उनके बचपन में घटे कुछ प्रसंग एवं उनकी साधना की यात्रा के बारे में यहां संक्षेप में दे रहे हैं ।
समर्थ रामदास स्वामी का जन्म परभणी नामक गांव में ई.स. १६०८, शक १५३०, चैत्र शुक्ल पक्ष नवमी को मध्यान्ह दोपहर १२ बजे हुआ था । संयोग से प्रभु श्रीरामचंद्र एवं समर्थ रामदास स्वामी के जन्म का समय, तिथि एवं मास एक ही है । बचपन में उन्हें नारायण नाम से जाना जाता था । उनके माता-पिता का नाम सूर्याजीपंत एवं राणूबाई ठोसर था । उनके बडे भाई गंगाधर स्वामी को सभी श्रेष्ठ कहते थे । आठ वर्ष की आयु में पिता की मृत्यू होने से नारायण अंतर्मुख हो गया ।
पिता की मृत्यू के उपरांत अगले वर्ष ही उन्हें प्रभु श्रीराम की प्रत्यक्ष भेंट हुई । उन्होंने समर्थ रामदासस्वामी को मंत्रोपदेश देकर १३ अक्षरी श्रीराम जय राम जय जय राम । इस मंत्र का जप करने को कहा । उसके अनुसार पूजा के लिए बाण, जप हेतु माला, गेरुआ रंग के वस्त्र, राम नामांकित पत्र दिया । उसी प्रकार उन्हें आज्ञा दी, कला के प्रथम चरण में यवनों का वर्चस्व बढने लगेगा । तब तुम धर्मस्थापना करो एवं वही कार्य अंततक करें । उसके लिए आप कृष्णा नदी के किनारे निवास करें । शिसोदे वंश में उस समय सांब अंश के राजा छत्रपती शिवाजी का जन्म होगा । उन्हें मंत्रोपदेश देकर धर्मस्थापना के कार्य में उनकी सहायता लें ।
नारायण शिवजी के मारुति का अवतार होने से उसकी बुद्धि कुशाग्र तो थी ही; परंतु नटखटपना भी अंग में भरा हुआ था । परिणामस्वरुप उसने उस समय का ३ वर्षों का शालेय अभ्यासक्रम ६ माह में ही पूर्ण किया ।
उसके उपरांत मांने नारायण को विवाह की बेडी में अटकाने का विचार किया । उन्होंने वैसा उनके बडे भाई श्रेष्ठ से कहा तो वे बोले, मां, नारायण सामान्य बालक नहीं है । विवाह के विषय में बात करनेपर वह कितना क्रोधित होता है, वह तो तुम्हें ज्ञात है । इसलिए उस विचार को छोड दो ! मां को उसका कहना उचित नहीं लगा । उसने नारायण से मीठी बातें कर विवाह की वेदीपर खडे रहने का आश्वासन लिया एवं विवाह निश्चित किया । मुहूर्तपर शुभमंगल सावधान ! ऐसा मंगलाष्टक के आरंभ होते ही नारायण ने ‘सांप’ ऐसा शोर किया । विवाह मंडप मे हडकंप मच गया एवं उसी का लाभ उठाकर उसने वहां से जो पलायन किया तो सीधे नासिक के निकट टाकळी में जाकर रुका । ‘सावधान’ शब्द कानोंपर आते ही नारायण खरे अर्थ से सावधान हुआ था, तथा उसने मां को दिए शब्द का भी पालन किया था ।
उसके पश्चात उसने टाकळी में नंदिनी एवं गोदावरी नदी के संगम में १२ वर्ष गायत्री पुरश्चरण किया । उसे प्रत्यक्ष प्रभु श्रीरामचंद्र ने दर्शन दिए एवं उनके कहनेपर ही नारायण तीर्थ यात्रापर निकले । इस प्रकार नारायण से रामदास स्वामी हुए ।
– श्री. चिंतामणी देशपांडे (मासिक धनुर्धारी, जुलै २०१२)