लगभग ४०० वर्ष पूर्व तमिलनाडू में त्यागराज नामक रामभक्त हुए । वे उत्तम कवि भी थे । वे प्रभु राम के स्वयंरचित भजन गाया करते थे । वे सदैव रामनाम में डूबे रहते थे । एक बार उन्हें दूसरे नगर में जाना था । वन से जाते समय उन्हें लुटने के लिए दो लुटेरे उनके पीछे लगे । त्यागराज अपनी ही धुन में भजन गुनगुनाते हुए जा रहे थे । पांच घंटों के उपरांत वे दूसरे नगर के निकट पहुंचे । उस समय दोनों चोर उनके पैरो में गिर पडे । त्यागराज चकित हुए । उन्होंने पूछा, ‘‘आप मेरे पैर क्यों छू रहे हो ?’’
उन्होंने कहा, ‘‘हम चोर है । आपके पास जो कुछ होगा, उसे हम ले जाना चाहते थे; परंतु आपके निकट आपके अंगरक्षक होने से हम आपको कुछ नहीं कर पाए । उन्होंने हमे पहचान लिया । वे हमे पकडनेवाले थे; परंतु हमने उनकी क्षमा मांगी और उनके पैर छूने लगे । तब उन्होंने कहा कि हमे नमस्कार करने की अपेक्षा त्यागराज को नमस्कार करें, तो ही हम आपको छोडेंगे; इसलिए हम आपके पैर छू रहे है । त्यागराज ने पूछा, ‘‘कौन से दो रक्षक ? मैंने तो किसी को भी नहीं बताया था । त्यागराज इधर-उधर देखने लगे । वहां कोई भी नहीं था । चोरों को भी आश्चर्य हुआ । दोनों अंगरक्षक अदृश्य हो गए थे ।
त्यागराज ने उनसे पूछा, ‘‘वे अंगरक्षक दिखने में कैसे थे ?’’ चोरों ने कहा, ‘‘दोनों के कंधोंपर धनुष्य-बाण थे । मस्तकपर मुकुट था और दोनों युवा थे । तभी त्यागराज को पता चला कि चोरों को दिखाई दिए अंगरक्षक स्वयं प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण ही थे ! त्यागराज ने चोरों से कहा, ‘‘आप परम भाग्यशाली हो । मैं रामभक्त हूं, अपितु मुझे अभी तक उनके दर्शन नहीं हुए । आप चोर हो और रामभक्त भी नहीं हो, तब भी आप को प्रभु राम के दर्शन हुए । यदि मैं चोर होता, तो अच्छा होता !
– डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (अबके पू. वसंत आठवले), चेंबूर, मुंबई. (निज भाद्रपद कृष्ण पक्ष ९, कलियुग वर्ष ५११४ (९.१०.२०१२))