कौरवों ने पांडवों को जुए में हराकर बारह वर्ष वनवास एवं एक वर्ष अज्ञातवास में भेजा । वनवासकाल में पांडव द्वैतवन में रहते थे । वहां कौरव अपनी संपत्तिका प्रदर्शन एवं पांडवों की निर्धनता का उपहास करने के लिए जाया करते थे ।
एक समय दुर्योधन अपने परिवार के साथ द्वैतवन के सरोवर की ओर जाने लगा । उसी समय चित्रसेन गंधर्व अपनी अप्सराओं के साथ उसी सरोवर में जलक्रीडा कर रहा था ।
सरोवर की ओर आनेवाले दुर्योधन को गंधर्वों ने रोक दिया । इससे दुःशासन अत्यंत क्रोधित हुआ । क्रोध के वशीभूत उसने गंधर्वों को युद्ध करने की चुनौती दी । दोनों ओर से तुमुल युद्ध आरंभ हुआ । इस युद्ध में गंधर्वों ने कौरवों को पराभूत कर दिया । इससे कौरवों की स्थिति दयनीय हो गई । यह ज्ञात होनेपर, चार-छह कौरव-सैनिक अपने प्राण बचाने के लिए उसी वन में रहनेवाले युधिष्ठिर के पास गए और उनके हाथ-पांव पडकर कुरूकुल की लज्जा बचाने की विनती करने लगे । तब भीम ने कहा, ‘अब हम तुम्हारी सहायता नहीं करेंगे । सभी कौरवों का यक्ष के हाथों नाश हो । अपने आप कौरवों से छुटकारा मिलेगा । किंतु, भीम का कहना युधिष्ठिर को अछा नहीं लगा । वे बोले, ‘आपस में लडते समय हम पांच के विरुद्ध सौ कौरव होते हैं । किंतु, अब परायों से लडने का समय आया है । इसलिए, हम एक सौ पांच भाइयों को मिलकर युद्ध करना चाहिए । तभी हम उन्हें परास्त कर पाएंगे ’ ।
इस प्रकार, समझाकर युधिष्टिर ने भीम, अर्जुन, नकुल, एवं सहदेव को कौरवों की सहायता करने के लिए कहा । पांडव गंधर्वों के विरुद्ध लडने के लिए कौरवों से जा मिले और कौरवों का साथ देकर गंधर्वों को पराजित किया । इस घटना ने हमें सिखा दिया कि शत्रु से लडते समय संगठित होना कितना महत्त्वपूर्ण होता है । उसी समय से यह एक नई लोकोक्ति का प्रचलन हुआ –
‘वयम् पंचाधिकम् शतम् ।’ अर्थात, हम पांच नहीं, एक सौ पांच हैं ।
इस प्रकार, आपस में वैर होनेपर भी परायों से, अर्थात विदेशियों से लडते समय एक हो जाना चाहिए । संगठित होकर लडने की मनोवृत्ति को दर्शाने के लिए ही कहा जाता है – ‘वयं पंचाधिकम् शतम् ।’