गुरुदेव द्रोणाचार्य की विशेष कृपा का पात्र शिष्य अर्जुन !
शिष्यों को मंत्रशक्ति का महत्त्व समझाने के लिए गुरुदेवजी ने एक अभिमंत्रित बाण वटवृक्ष की पत्तियोंपर छोडना और वह बाण प्रत्येक पत्ती को छेदना : गुर्वाज्ञा के कारण अर्जुन धोती लाने के लिए आश्रम गया, उस समय गुरु द्रोणाचार्यजी ने कुछ शिष्यों से कहा, ‘गदा एवं धनुष्य में शक्ति होती है; परंतु मंत्र में उससे अधिक शक्ति होती है । मंत्रजाप करनेवाले इसका महत्त्व एवं पद्धति समझ लें, तो मंत्र में अधिक सामर्थ्य होता है, यह बात वे समझ जाएंगे । मैं अभिमंत्रित एक ही बाण से इस वटवृक्ष के सब पत्तियों को छेद सकता हूं । यह कहकर, द्रोणाचार्यजी ने भूमिपर एक मंत्र लिखा एवं उसी मंत्र से अभिमंत्रित एक बाण छोडा । बाण ने वृक्ष के सभी पत्तों को छेद दिया । यह देखकर, सब शिष्य आश्चर्य में पड गए ।
वापस आए अर्जुन की दृष्टि वृक्ष की पत्तिओंपर पडना, उसमें जिज्ञासा निर्माण होना एवं भूमिपर लिखा हुआ वृक्ष की पत्तियों को छेदने का (वृक्षच्छेदन का) मंत्र पढकर उसने वह प्रयोग करना, इसके कारण पत्तियों में दूसरा छेद भी निर्माण होना : पश्चात गुरु द्रोणाचार्यजी सब शिष्यों के साथ स्नान करने गए । उसी समय अर्जुन धोती लेकर आया । उसकी दृष्टि वृक्ष की पत्तियोंपर पडी । वह सोचने लगा । इस वटवृक्ष की पत्तियोंपर पहले तो छेद नहींr थे । मैं जब सेवा करने गया था, उस समय गुरुदेवजी ने शिष्यों को एक रहस्य बताया था । रहस्य बताया था, तो उसके कुछ सूत्र होंगे, प्रारंभ होगा, इसके चिह्न भी होंगे । अर्जुन ने इधर-उधर देखा, तो उसे भूमिपर लिखा हुआ मंत्र दिखाई दिए । वृक्षच्छेदन के सामर्थ्य से युक्त यह मंत्र अद्भुत है, यह बात उसके मन में समा गई । उसने यह मंत्र पढना आरंभ किया । जब उसके मन में दृढ विश्वास उत्पन्न हो गया कि यह मंत्र निश्चित सफल होगा, तब उसने धनुष्यपर बाण चढाया और मंत्र का उच्चारण कर छोड दिया । इससे वटवृक्ष की पत्तियोंपर, पहले बने छेद के समीप दूसरा छेद बन गया । यह देखकर अर्जुन को अत्यंत आनंद हुआ । गुरुदेवजी ने अन्य शिष्यों को जो विद्या सिखाई, वह मैं ने भी सीख ली, ऐसा विचार कर, वह गुरुदेवजी को धोती देने के लिए नदी की ओर चल पडा ।
स्नान से लौटने के पश्चात जब द्रोणाचार्यजी ने वटवृक्ष की पत्तियोंपर दूसरा छेद देखा, तो उन्होंने अपने साथ के सभी शिष्यों से प्रश्न किया –
द्रोणाचार्य : स्नान से पहले वटवृक्ष की सभी पत्तियोंपर एक छेद था । अब दूसरा छेद आप में से किसने किया ?
सब शिष्य : हमने नहीं किया ।
द्रोणाचार्य (अर्जुन की ओर देखकर) : यह कार्य तुमने किया है क्या ?
(अर्जुन कुछ डरा; परंतु झूठ कैसे कहूं; इसलिए बोला)
अर्जुन : मैं ने आपकी आज्ञा के बिना आपके मंत्र का प्रयोग किया । क्योंकि, मुझे लगा कि आपने इन सबको यह विद्या सिखा दी है, तो आपसे इस विषय में पूछकर आपका समय न गंवाकर अपनेआप सीख लूं । गुरुदेवजी, मुझसे चूक हुई हो, तो क्षमा कीजिएगा ।
द्रोणाचार्य : नहीं अर्जुन, तुम में जिज्ञासा, संयम एवं सीखने की लगन है । उसी प्रकार, मंत्रपर तुम्हारा विश्वास है। मंत्रशक्ति का प्रभाव देखकर सब केवल चकित होकर स्नान करने चले गए । उनमें से एकने भी दूसरा छेद करने का विचार भी नहीं किया । तुम धैर्य दिखाकर एवं प्रयत्न कर उत्तीर्ण हो गए । तू मेरा सर्वोत्तम शिष्य है। अर्जुन, तुमसे श्रेष्ठ धनुर्धर होना असंभव है ।
शिष्य इतना जिज्ञासू हो कि गुरु का अंतःकरण अभिमान से भर जाए !
संदर्भ : मासिक ऋषि प्रसाद, मई २००३