‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस इंग्लैंड में ‘आय.सी.एस.’की परीक्षा देकर भारत लौट आए । तत्पश्चात उन्हें एक लिखित परीक्षा देनी पडी । परीक्षा की प्रश्नपत्रिका देखते ही सुभाषबाबू एकदम संतप्त हुए । उस प्रश्नपत्रिका में भाषांतर के लिए एक परिच्छेद दिया था ।
उस परिच्छेद में एक वाक्य था, ‘Indian Soldiers are generally dishonest’ अर्थात ‘भारतीय सैनिक सामान्यतः अप्रामाणिक होते हैं ।’ इस प्रकार का अनुवाद परीक्षार्थी को करना अपेक्षित था । सुभाषबाबू ने इस प्रश्न को विरोध किया । उन्होंने परीक्षा चालक को यह प्रश्न निरस्त करने की विनति की । इसपर संचालक ने कहा, ‘‘इस प्रश्न का उत्तर लिखना अत्यंत आवश्यक है, जो परीक्षार्थी इस प्रश्न का उत्तर नहीं देगा, उसे उच्चपद की नौकरी नहीं मिलेगी ।’’ संचालक का यह उत्तर सुनकर सुभाषबाबू अत्यंत क्रोधित हुए । उन्होंने वह प्रश्नपत्रिका फाडकर फेंक दी ।
वे संचालक से बोले, ‘‘आग लगे आपकी चाकरी को ! मेरे देशबंधुओंपर लगे इस झूठे आरोप को सहन करने की अपेक्षा मुझे भूक से मरना भी पडे, तो भी मुझे स्वीकार होगा । ऐसी लाचारी स्वीकारने की अपेक्षा मृत्यु श्रेष्ठ है !’’ ऐसा कहकर सुभाषबाबू उस परीक्षागृह से सीधे बाहर चले गए ।
तात्पर्य : स्वहित की अपेक्षा स्वदेश अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
विचार : ‘जो अपने मातृभूमिपर प्रेम नहीं कर सकता, वह किसीपर भी प्रेम नहीं कर सकता ।’
संदर्भ : ‘अशी मूल्ये असे संस्कार’ (ऐसे मूल्य, ऐसे संस्कार), संपादक : प्रकाश अर्जुन राणे (महाराष्ट्र)