१. कोलकाता विश्वविद्यालय के उपकुलगुरु प्रदान कर रहे ‘डॉक्टरेट’ पदवी को नम्रतापूर्वक नकारना ।
‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय हिंदु धर्म और संस्कृति के अनन्य पुजारी थे । उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन भारत मां की सेवामें समर्पित किया था । जितने वे उदार, विनम्र, निराभिमानी एवं मृदू थे, उतने ही संयमी, दृढ, स्वाभिमानी एवं अविचल योद्धा भी थे । उनके जीवन में हिंदु धर्म और संस्कृति का स्वाभिमान ठूसकर भरा हुआ था ।
एक बार कोलकाता विश्वविद्यालय के उपकुलगुरुने मालवीयजी के कार्य को देख प्रसन्न होकर उन्हें एक पत्र भेजा ।
मालवीयजी (पत्र देखकर असमंजसमें पडते हुए मन ही मन कुछ बोले) : यह तो विचित्र प्रस्ताव रखा है । क्या बताऊं ? क्या लिखू ?
एक मित्र : पंडितजी, ऐसी कौनसा विचित्र प्रस्ताव आपके सामने रखा गया है ?
मालवीयजी : कोलकाता विश्वविद्याल के उपकुलगुरु महोदय मुझे मेरी सनातन पदवी छिनकर एक नयी पदवी प्रदान करना चाहते है । इस पत्र में लिखा है कि कोलकाता विश्वविद्यालय आपको ‘डाक्टरेट’ पदवी से अलंकृत कर आपका सम्मान करना चाहता है ।
एक सज्जन (हाथ जोडकर) : प्रस्ताव तो उचित ही है । आप ना मत कीजिए । यह तो वाराणसी की जनता के लिए विशेष गर्व की घटना है !
मालवीयजी : भाई, आप तो बहुत ही भोले है । इससे वाराणसी का गौरव नहीं बढेगा, अपितु यह तो वाराणसी के पांडित्य को अपमानित करने का प्रस्ताव है ।
उन्होंने तुरंत पत्र का उत्तर भेजा, ‘माननीय महोदय ! आपके प्रस्ताव के लिए धन्यवाद ! मेरे इस उत्तर को आपके प्रस्ताव का अनादर न माने, अपितु आप उसपर पुनश्च एक बार विचार करें । आपका यह प्रस्ताव मुझे निरर्थक लगता है । मैं जन्म तथा कर्म से ब्राह्मण ही हूं । जो ब्राह्मण धर्म की मर्यादाओं का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करता है, उसके लिए ‘पंडित’की उपाधि से बढकर दूसरी कोई भी पदवी श्रेष्ठ नहीं हो सकती । मुझे ‘डॉक्टर मदनमोहन मालवीय’ कहलवाने की अपेक्षा ‘पंडित मदनमोहन मालवीय’ कहलवाना अधिक प्रिय होगा । आशा करता हूं कि आप इस ब्राह्मणके मनकी भावनाका आदर करते हुए मुझे ‘पंडित’ ही रहने देंगे ।’
२. पंडित मालवीय को व्हाईसरायद्वारा ‘सर’ उपाधि देने की इच्छा व्यक्त करनेपर भी उसका स्वीकार न कर ईश्वरद्वारा दी हुई ‘पंडित’ उपाधि ही रखना ।
मालवीयजी की कार्यशैली अत्यंत मधुर तथा सुलभ थी । उनकी सहायता करने की प्रवृत्ति तथा अन्य सद्गुणों के कारण विरोधक भी उनका सम्मान करते थे । मालवीयजी अपनी वृद्धावस्था में व्हॉईसराय की परिषद के वरिष्ठ अधिकारी (काउंसिलर) थे; तब उनकेद्वारा रहस्यमय तथा तथ्यपूर्ण आलोचना करनेपर भी व्हॉईसराय ने एक दिन उनसे कहा, ‘‘पंडित मालवीय, हिज मॅजेस्टीका (अंग्रेज) सरकार आप को ‘सर’ इस उपाधि से सम्मानित करना चाहता है ।’’
मालवीयजी हंसते हुए बोले, ‘‘आप मुझे इसके पात्र समझ रहे है, इसलिए आपको मनःपूर्वक धन्यवाद ! परंतु मैं परंपरागत मेरी ‘सनातन’ उपाधि का त्याग नहीं करना चाहता । मुझे ‘पंडित’की उपाधि ईश्वर ने दी हुई है । मैं उसका त्याग कर ईश्वर के किसी सेवकद्वारा मिली उपाधि का स्वीकार क्यूं करुं ?’’
संदर्भ : मासिक ‘ऋषीप्रसाद’, डिसेंबर २०११