१. राजा रघुनाथसिंहद्वारा गुरु गोविंदसिंहजी के चरणों में रत्नजडित सोने के कंगन अर्पित करना ।
‘यमुना के पावन तटपर शिखों के दसवे एवं अंतिम गुरु गोविंदसिंह अपने अमृतवचनोंद्वारा श्रोतागणों के हृदय प्रफुल्लित कर रहे थे । सत्संग समाप्त होनेपर एक के पश्चात एक सर्व श्रोतागण गुरुचरणों में दक्षिणा रखने लगे । इस सत्संग को राजा रघुनाथसिंह भी उपस्थित थे । उन्होंने भी गुरुचरणों में रत्नजडित सोने के कंगन रख दिए ।
२. कंगन धोते समय वे पानी में गिरना और उस समय राजाद्वारा अमूल्य कंगन पानी में गिरने का दुःख व्यक्त किया जाना तथा उसे ढूंढने का प्रयास किया जाना ।
गुरु गोविंदसिंह वह कंगन देखकर राजा से बोले, ‘‘रघुनाथसिंहजी, सूर्य के प्रकाश में यह कंगन कितने चमक रहे हैं ! मुझे ऐसा लगता है कि इन्हें पानी में धोनेपर उनकी चमक और अधिक बढेगी ।’’ ऐसा कहते हुए गुरु गोविंदसिंहजी अपने आसन से उठे और यमुनाजी में एक कंगन धोने लगे । तब एक कंगन पानी में गिर गया !
राजा रघुनाथसिंह के मुख से स्वर निकला, ‘‘अरे ! कितना अमूल्य कंगन आपके हाथो से गिरा ! इसको सुनार ने कितने परिश्रम से उसे बनवाया था । उसके लिए विपुल व्यय भी किया था ।’’ ऐसा कहते हुए राजा रघुनाथसिंह स्वयं कंगन ढूंढने के लिए यमुनाजी में उतरे । बहुत प्रयास करनेपर भी कंगन उनके हाथ नहीं लगा । इसलिए बाहर आकर उन्होंने गुरुजी से पूछा, ‘‘कृपा कर मुझे यह बताऐंगे कि कंगन कहां गिर गए थे ?’’
३. धन-वैभव के प्रदर्शन के लिए ही राजा रघुनाथसिंह ने कंगन अर्पित करने से गुरु गोविंदसिंहजी ने दूसरा कंगन भी यमुनाजी में फेंकना ।
जब राजा रघुनाथसिंहजी दक्षिणा अर्पित करने के लिए आए थे तभी गुरुजी ने ताड लिया था कि अपने धन-वैभव के प्रदर्शन के लिए ही राजा कंगन लेकर आए हैं । इसलिए हाथ में थामा दूसरा कंगन भी यमुनाजी में फेंकते हुए वे बोले, ‘‘जहां यह कंगन गिरेगा, वही पहला कंगन गिरा हुआ होगा ।’’ यह सुनकर रघुनाथसिंहजी का अहंकार न्यून हो गया और वे बिना कुछ बोले अपने आसनपर जाकर विराजित हुए ।
४. एक वृद्ध महिला ने अर्पित किया हुआ दूध और फल का गुरु गोविंदसिंहद्वारा स्वीकार किया जाना ।
गुरुजी चलते-चलते श्रोतागणों के अंतिम पंक्ति में एक वृद्ध महिला के पास आए और बोले, ‘‘मांजी, मेरे लिए क्या लार्इं है ?’’ कुछ क्षण के लिए वह महिला विश्वास ही नहीं कर पार्इं की साक्षात गुरुजी उसके पास आए है ! गोविंदजी ने पुनश्च कहा, ‘‘मांजी, आपने लाई हुई वस्तु लेकर मुझे आनंद होगा ।’’ मांजी अत्यंत संकोच से बोली, ‘‘मैंने लाई हुई वस्तुएं अत्यंत तुच्छ है । आप हमारे लिए सत्संग आयोजित करते है । बोलने से आपके गले को कष्ट होते होंगे । ऐसा विचार कर मैंने शक्कर डालकर थोडा गाय का दूध लाया है और फल भी लाएं है ।
सत्संग के पूर्व थोडा दूध पिएंगे तो आपको अच्छा लगेगा । आपके चरणों में यह छोटासा उपहार अर्पित करने की इच्छा मुझे सत्संग का प्रारंभ करने पूर्व ही हुई थी । परंतु आपके चरणों में अमूल्य उपहार अर्पित होने लगे ! उनमें भी सोने के कंगन अर्पित होते हुए देख मुझे मेरा उपहार अत्यंत सामान्य लगा ।’’ मांजी की ओर प्रेमपूर्वक देखते हुए गुरु गोविंदसिंह बोले, ‘‘मेरे सामने यह जो अमूल्य वस्तुओं का ढेर लगा है उनमें सोने-चांदी के अलंकार भी अवश्य होंगे; परंतु मांजी, आपने लाए हुए दूध में जो मिठास है, वह इन वस्तुओं में नहीं !’’ इतना कहकर वे मांजी के हाथ का कटोरा लेकर दूध पिने लगे । उसके पश्चात फलों की टोकरी भी ली । अपनी अर्पित वस्तूएं गुरुजी ने स्वीकार की यह देख मांजी के नयन भर आए ।
५. उपहार का महत्त्व उसके मूल्य से नहीं, अपितु देते हुए उस समय जो भाव रखा हुआ उससे निश्चित होना ।
गुरु गोविंदसिंह पुनश्च अपने आसनपर जाकर विराजित हुए और बोले, ‘‘उपहार का महत्त्व उसके मूल्य से निश्चित नहीं होता, अपितु उस समय जो भाव रखा है, उससे निश्चित होता है ! आज यह दूध पिकर मुझे जो आनंद मिला है, उसके सामने तो स्वर्गसुख भी घास के तिनके के समान है ! उसमें माता का वात्सल्य था । मांजी, आप के जैसे भक्त ही धर्म का गौरव है । भले ही आप मेरा गुरु कहकर सम्मान कर रहीं है; परंतु मेरे लिए तो आप ही पूजनीय है ।’’
संदर्भ : ऋषी प्रसाद, डिसेंबर २००३