शरण में आए कबुतर के प्राण बचाने के लिए अपने प्राणों को अर्पित करने के लिए सिद्ध राजा शिबी !
अतिप्राचीन काल में शिबी नामक एक राजा था । वह बहुत दयालू और न्यायी राजा था । यदि कोई सहायता मांगने के लिए आए, तो राजा उन्हें सहायता किए बिना नहीं रहता था । एक बार एक कबुतर उडते हुए शिबी राजा के सामने आया । वह भय से कांप रहा था । राजा शिबी ने उसे प्रेम से हाथ में लिया । उसी क्षण एक क्रूर चील उडते हुए वहां पहुंचा । उसने राजा शिबी से कहा, ‘‘महाराज, मुझे मेरा कबुतर दे दीजिए ।’’
शिबी ने कहा, ‘‘यह कबुतर मेरी शरण में आया है । यदि मैंने इसे तुम्हारे हाथ दिया तो तुम उसे खा जाओगे । इसलिए इसका पाप मुझे लगेगा ।’’ चील ने कहा, ‘‘मुझे बहुत भूक लगी है और यह कबुतर मेरा अन्न है । यदि यह अन्न आपने मुझ से छिन लिया, तो मैं मर जाऊंगा । इसलिए तो क्या इसका पाप आपको नहीं लगेगा ?’’ राजा ने कहा, ‘‘तुम दूसरा कोई भी अन्न मुझसे मांग लो, मैं तुम्हें अवश्य दूंगा ।’’ चील ने कहा, ‘‘ठीक है । इस कबुतर के जितना भार होगा, उतना मांस आप आप के शरिर से कांटकर दें ।’’
राजा ने यह बात स्वीकार की । तराजू के एक पलडे में कबुतर रखा गया और दूसरे पलडें में अपने शरिर का मांस कांटकर रख दिया । तब भी कबुतर का पलडा भारी था । अंत में राजा स्वयं ही पलडे में बैठने लगे । साक्षात अग्निदेव ने कबुतर का और इंद्रदेव ने चील का रुप लिया था । दोनों अपने झूठे रुप फैंककर अपने वास्तव रुप में राजा के सामने प्रकट हुए । राजा को दोनों के आशीर्वाद मिले । वे दोनों बोले, ‘‘राजा, हम आपकी परीक्षा लेने के लिए आए थे । आप वास्तव में ही दयालू और न्यायी हो !’’
– (पू.) डॉ. वसंत बाळाजी आठवले (ख्रिस्ताब्द १९९१)