एक दिन काशी में एक बडे तपस्वी शान्ताश्रम स्वामी का ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज से निम्नांकित सम्भाषण हुआ –
स्वामी : महाराज, इतने लोग काशी में गंगास्नान करने के पश्चात भी पावन क्यों नहीं होते ?
गोंदवलेकर महाराज : क्योंकि, उनमें खरी श्रद्धा नहीं होती !
स्वामी (उत्तर से सन्तुष्ट न होनेपर) : वे खरी श्रद्धा के बिना गंगास्नान के लिए क्यों आएंगे ?
गोंदवलेकर महाराज : इसका उत्तर तुम्हें शीघ्र ही दूंगा । इस सम्भाषण के चार दिन पश्चात, गोंदवलेकर महाराज ने शान्ताश्रम स्वामी के हाथ-पैरोंपर चीथडे लपेटकर उन्हें महारोगी जैसा बना दिया था और जहां सैकडों लोग गंगास्नान के लिए उतरते हैं, वहां उन्हें बैठा दिया । महाराज स्वतः बैरागी का वेष धारणकर उनके समीप खडे हो गए ।
कुछ समय में वहां बहुत लोग एकत्र हो गए । बैरागी ने वहां उपस्थित लोगों से कहा, ‘‘सज्जनो, सुनिए ! यह महारोगी मेरा भाई है । गत वर्ष हम दोनों ने भगवान विश्वनाथ की अत्यन्त मन से सेवा की थी । उस सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने मेरे भाई को वर दिया था कि जिस तीर्थयात्री में, ‘इस गंगा में स्नान करने से मेरे पाप नष्ट हो गए और मैं शुद्ध हो गया’, ऐसा भाव होगा, उसके एक आलिंगन से तेरा यह महारोग नष्ट हो जाएगा ।’ यहां आप इतने लोग हैं; कोई तो मेरे भाइपर इतना उपकार करे !’’ बैरागी के वचन सुनकर भीड से ८-१० लोग आगे बढे, उसी क्षण बैरागी ने उन्हें रोककर कहा, ‘‘आपलोग क्षणभर रुकिए ! विश्वनाथ भगवान ने यह भी कहा था कि ‘जो तीर्थयात्री इस महारोगी को आलिंगन देगा, उसे यह रोग लग जाएगा । किन्तु, यदि वह पुनः शुद्ध भाव से गंगास्नान करेगा, तो ही महारोग से मुक्त होगा ।’’ यह सुनकर सब लोग वहां से चले गए । किन्तु, वहां खडे एक युवक किसान ने अधिक विचार न कर, बडी निष्ठा से शान्ताश्रम स्वामी को आलिंगन दिया । उसके पश्चात, तुरन्त गोंदवलेकर महाराज ने उस किसान को आलिंगन दिया और कहा, ‘‘बेटा, तेरी काशीयात्रा सफल हुई; तेरा कल्याण हुआ !’’
शान्ताश्रमस्वामी इस प्रसंग का अर्थ अपने आप समझ गए !’
सन्दर्भ : पू. बेलसरे लिखित ‘श्रीब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज चरित्र आणि वाङ्मय’