बालमित्रों, साधना करने से अपनी बुद्धि का विकास होता है । अर्थात पंचज्ञानेंद्रिये, मन और बुद्धि के परे जो संवेदनाएं होती हैं उनका ज्ञान हमें होने लगता है । कुछ संत किसी व्यक्ति के भूतकाल अथवा भविष्य के संदर्भ में जानकारी देते हैं । इसे ही सूक्ष्म का ज्ञान होना कहते हैंं । सर्वसाधारण व्यक्ति के समान लगनेवाले सन्त तुकाराम महाराज ने इस ज्ञान का उपयोग लोगों के हित के लिए किस प्रकार किया, इस कथा से हमें इसका बोध होगा ।
संत तुकाराम महाराज देहू गांव में रहते थे । एक दिन गांव में वार्ता फैली कि, एक महान साधू आनेवाले है । साधू का स्वागत करने के लिए गांव के लोगों ने बडा मंडप बनाया । उनके दर्शन के लिए लोग बडी संख्या में एकत्रित हुए । सभी लोग उसका गुणगान करने लगे । गांव में सभी ओर यह वार्ता फैली थी कि, उस साधू के दर्शन से अपनी सारी इच्छाएं पूर्ण होती हैं । जब साधू गांव में आया तो प्रत्येक व्यक्ति उस साधू के दर्शन के लिए जाने लगा । दक्षिणा देकर विभूति एवं प्रसाद प्राप्त करने लगा । ‘घर में पैसा आएं, खेत में अनाज आने दें, कुआं खोदते समय पानी लगें’ आदि अनेक व्यावहारिक अडचनें गांववाले उस साधू के पास प्रकट कर रहे थे । साधू नेत्र बंद करके बैठते थे । आनेवाले लोग उनके चरणोंपर माथा रखकर अपना व्यर्थ प्रलाप सुनाते थे । सुनकर साधू उन्हें विभूति लगाता था । इसके लिए लोगों को उसे दक्षिणा देनी पडती थी । तदुपरांत वह साधू उन्हें आशीर्वाद देता था ।
तुकाराम महाराज ने यह वार्ता सुनी । तब उन्होंने उस साधू के दर्शन करने का निश्चय किया । साधू के दर्शन करने के लिए बहुत भीड एकत्रित थी । उस भीड से धीरे-धीरे मार्ग निकालकर वे उस साधू के सामने आकर बैठ गए । साधू नेत्र बंद कर शांत बैठा था । आधा-एक घंटा होनेपर भी उसने अपने नेत्र नहीं खोले । साधू के नेत्र खोलने तथा उसकी दिव्यदृष्टि के लिए लोग उत्कंठा से प्रतीक्षा कर रहे थे । संत तुकारामजी साधू के स्वभाव से पूर्णतः परिचित थे ।
कुछ समय उपरांत साधू ने नेत्र खोले तथा संत तुकाराम महाराज को सामने बैठा देखकर उसने प्रश्न किया कि ‘‘आप कब आए ?’’ तुकाराम महाराज ने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘जब आप नेत्र बंद कर मन में विचार कर रहे थे कि, यह गांव सुस्थिति में दिखता है । यहां की भूमि उपजाऊ एवं वाटिका लगाने योग्य है । यहां के लोग भी मुझे बहुत सम्मान देने लगे है, दक्षिणा भी भरपूर दे रहे हैं । इस दक्षिणा से यहां की भूमि क्रय करूंगा तथा गन्ने की खेती करूंगा । खेती से मुझे असीमित धन प्राप्त होगा । वह धन आप गिन रहे थे, उसी समय मैं यहां आया ।’’ उनके ये शब्द सुनकर वह ढोंगी साधू घबरा गया । उसके मुख से एक शब्द भी नहीं निकल सका । वह समझ गया कि अब इस गांव में मेरी दाल नहीं गलेगी । इसलिए वह दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही किसी को बिना बताए अपने बोरिया-बिस्तर समेटकर वहां से नौ-दो-ग्यारह हो गया !
बालमित्रों, आपने देखा न ? ढोंग कैसे सामने आता है ! ईश्वर नहीं बोलते; परंतु ईश्वर का सगुण रूप अर्थात संत बोल सकते हैं । संत अचूक पहचानते हैं । संत तुकाराम महाराज के कारण लोग उस ढोंगी साधू से बच सके ।