यह बात उस समय की है जब प्रभु श्रीराम रावण के बंधन से सीता माता को छुडाने के लिए लंका की ओर जा रहे थे । वह सारी वानर सेना के साथ समुद्र के किनारे पहुंच गए । लंका जाने के लिए समुद्र को पार करना यही एक मार्ग था । उसे पार कर लंका पहुंचना बहुत कठिन था । वहां ऐसा कोई साधन कहीं था कि इतने बडे समुद्र को पार कर लंका पहुंचा जा सके । प्रभु श्रीराम ने समुद्र से प्रार्थना की कि वह लंका जाने का मार्ग हमको दे दें । इस पर समुद्र ने उनकी नहीं सुनी । इस प्रकार ३ दिन बीत गए । समुद्र के रास्ता ना देने पर श्रीराम को क्रोध आ गया और समुद्र को सुखाने के लिए श्रीराम ने अग्नि अस्त्र बाण को समुद्र पर छोडने का निश्चय किया । तभी समुद्र देवता वहां प्रकट हो गए । और श्रीराम से क्षमा मांगने लगे । प्रभु श्रीराम बहुत दयालु थे । उन्होंने समुद्र देवता को क्षमा कर दिया । समुद्र देवता ने बताया कि आप समुद्र पर लंका तक वानरों द्वारा पत्थरों से एक पुल का निर्माण करायें । इससे आप लंका पहुंच जायेंगे । वानरसेना तथा हनुमानजी ने तय किया कि हम सागर में पत्थर डालकर सेतु/पुल बनाएंगे और उसपर चलकर लंका पहुंचेंगे । हर एक वानर पत्थर पर प्रभु श्रीराम का नाम लिखकर नामस्मरण करते हुए सागर में पत्थर डालने लगा । प्रभु का नाम लिखकर पत्थर डालने से पत्थर पानीपर तैरने लगे तथा थोडे ही दिनों में सेतु/पुल बनकर तैयार हो गया ।
सारे वानर जब सेतु/पुल बनाने में लगे हुए थे, तब एक छोटी सी गिलहरी उन सबको पुल बनाते हुए देख रही थी । उसने मन में सोचा कि प्रभु श्रीराम तो साक्षात भगवान हैं । उनके लिए ये बंदर सेतु/पुल बना रहे हैं । यह तो ये प्रभु श्रीराम की सेवा कर रहे हैं, मुझे भी इस कार्य में अपना योगदान करना चाहिए यह सोचकर गिलहरी ने मन ही मन प्रभु श्रीरामजी के चरणों में नमस्कार किया और अपनी सेवा आरंभ कर दी । समुद्र तट के पास ही रेत का ढेर था, गिलहरी उस रेत के ढेरपर जाती और वहां से अपने छोटे-छोटे हाथों और पूंछ में छोटे पत्थर एवं रेत लेकर सागर में डालती जा रही थी । जितनी उसकी क्षमता थी उसका वह पूरा उपयोग कर श्रीराम कार्य में लग गई । यह देखकर वानरों को बडा आश्चर्य हुआ । एक वानर ने उससे कहा, अरे तुम इतनी छोटी हो और एक-एक कण रेत लाकर समुद्र में डाल रही हो, क्या तुम्हारे ऐसा करने से पुल बन जाएगा ? तब गिलहरी बोली, भैया, मैं भले ही बडे पत्थर तो नहीं उठा पाऊंगी, आप लोगों जैसी सेवा तो नहीं कर पाऊंगी; किंतु जितनी श्रीराम ने मुझको छमता दी है । उसके अनुसार एक छोटी सी सेवा तो कर ही सकती हूं । भले अपको यह सेवा छोटी लगे परंतु प्रभु श्रीराम की सेवा तो हो ही रही है, आप मुझे यह सेवा करने दीजिए ऐसा कहकर गिलहरी दुबारा रेत लेकर सागर में डालने की सेवा करने लगी । यह सेवा करते करते वह थक गई थी; परंतु अपनी थकान की परवाह न कर बिना रुके वह सेवा करती जा रही थी । वह मन ही मन कह रही थी आपको क्या पता, जबतक मेरे शरीर में प्राण हैं, तब तक मैं प्रभु श्रीराम की सेवा करती ही रहूंगी ।’ जब वह पुन: रेत लेकर समुद्र की ओर जाने लगी तभी किसी ने बडे प्रेमसे उसकी ओर देखा; बच्चो क्या आप बता सकते हैं, वे कौन थे ? वे साक्षात प्रभु श्रीराम थे । उन्होंने उसे देखा तथा गिलहरी को अपने हाथों में उठा लिया । (स्लाइड हो तो) प्रभु श्रीराम ने प्रेम से अपने दाहिने हाथ की उंगलियों से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उस नन्ही सी गिलहरी से कहा, भले ही तुम छोटी हो, किंतु तुमने बहुत अच्छी सेवा की है । मैं तुमपर प्रसन्न हूं ।’ श्रीराम के ऐसे वचनों को सुन गिलहरी भाव-विभोर हो गई उस समय गिलहरी की पीठपर भगवान की उंगलियों के निशान प्रकट हो गए । बालमित्रों हमें गिलहरी की पीठपर जो धारियों के निशान दिखाई देते हैं ना वे प्रभु श्रीराम की उंगलियों के ही निशान हैं ! प्रभु श्रीराम ने गिलहरी से कहा, जो भी तुम्हारे जैसी सेवा करेगा, उसपर हमेशा मेरी कृपा बनी रहेगी । उसे किसी प्रकार की कमी नहीं होगी ।
बच्चो, इस कहानी से हमने क्या सीखा ? हमने सीखा कि भगवान की सेवा करते समय छोटे बडे का अंतर नहीं होता । हममें भगवान की सेवा करने की लगन होनी चाहिए । हम वह सेवा किस भाव से करते हैं । गिलहरी तो कितनी छोटी थी, अकेली थी तब भी उसने लगन और भाव से सेवा की और प्रभु श्रीरामजी की उस पर कृपा हो गई । भगवान की कृपा हो जाए, तो हमें कभी किसी बात की चिंता नहीं रहती । तो आज हमने यह जान लिया है कि हमपर भगवान की कृपा कैसे होगी ? गिलहरीपर भगवान की कृपा क्यों हुई ?, जब हम भगवान की सेवा करेंगे, भले ही वह सेवा गिलहरी के समान छोटी ही क्यों न हो ? हम पर भगवान की कृपा अवश्य होगी । बच्चो, सेवा का अर्थ है, भगवान को जो अच्छा लगे वह काम करना; भगवान के कार्य में सम्मिलित होना, यही भगवान की सेवा है ।