बालमित्रों, आप सिक्खों के गुरु नानकजी को तो जानते ही होंगे । एक दिन की बात है, गुरु नानकजी ने अपने एक शिष्य को बुलाकर एक चबूतरा (चौरा) बनाने के लिए कहा । शिष्य ने गुरु की आज्ञा से चबूतरा बना दिया । गुरु नानकजी ने उस चबूतरे को देखा और अपने शिष्य को उस चबूतरे को तोडने की आज्ञा दी । इस प्रकार गुरु नानकजी अपने शिष्य से बार-बार चबूतरा बनाने को कहते और बार-बार तुडवा देते थे । उनका शिष्य भी उनकी आज्ञा से बार-बार चबूतरा बना रहा था और तोड रहा था । यह देखकर गुरु नानकजी के बेटे को बहुत गुस्सा आया । उनके बेटे ने शिष्य से पूछा, ‘‘मेरे पिताजी बार-बार चबूतरा बनवा रहे हैं और उसे तोडने के लिए भी कह रहे हैं । इस बात से क्या आपको गुस्सा नहीं आ रहा ?’’ उसपर शिष्य ने कहा, ‘‘मुझको उस चबूतरे से क्या लेना-देना है । मैं तो गुरुदेवजी की आज्ञा का पालन कर रहा हूं तथा उनकी आज्ञा का पालन करना ही मेरी साधना है ।
गुरु नानकदेवजी के बडे बेटे का नाम श्रीचंद था । एक दिन गुरु नानकदेवजी ने अपने बडे बेटे को बुलाकर कहा ‘‘बेटा श्रीचंद, आज सेवा की भागदौड में मैं गोशाला की सफाई नहीं कर पाया हूं । केवल उतनी सेवा तुम कर देना !’’ श्रीचंद कुछ समय पहले ही स्नान कर बाहर निकला था तथा वह स्वच्छ कपडे पहने हुए था । श्रीचंद ने अपने मन में सोचा कि यदि मैं गोशाला की सफाई करुंगा, तो मेरे कपडे मैले हो जायेंगे तथा मुझे फिर से नहाना पडेगा । इसलिए, वह सफाई करना टालना चाहता था । उसने कहा, ‘‘पिताजी, मुझे तो मंदिरमें जाना है । वहां भलीभांति स्वच्छ होकर ही जाना चाहिए न !’’ इतना कहकर वह वहांसे चल दिया । तब, गुरुने अपने लेहाना नाम के शिष्य को बुलाया और गोशाला की सफाई करने के लिए कहा । उनके शिष्य ने भी कुछ समय पूर्व ही स्नान किया था; किंतु गुरुदेव की आज्ञा का पालन करने के लिए वह तुरन्त गोशाला साफ करने चल दिया । गोशाला स्वच्छ करने के बाद उसने पुन: स्नान किया और मंदिर गया ।
दूसरे ही दिन सिक्खों का बडा सम्मेलन था । उस सम्मेलन में सभी के सामने नानकदेवजी ने अपने शिष्य लेहाना का नाम बदल कर अंगतदेव कर दिया तथा अब वह ‘अंगददेव’ के नाम से पुकारा जाने लगा । गुरुदेव ने उसे गुरुगद्दी का भी उत्तराधिकारी बना दिया । इसपर उनके शिष्य चकित हो गए । शिष्यों ने कहा, ‘‘गुरुसाहेब, आपने आपने बडे बेटे को उत्तराधिकारी न बनाकर अपने लेहाना शिष्य को उत्तराधिकारी क्यों बनाया ? इससे क्या आपकी परम्परा नहीं टूटेगी !’’ तब गुरु नानकदेव बोले, ‘‘क्योंकि, श्रीचंद की अपेक्षा लेहाना अर्थात अंगददेव ही उत्तराधिकारी के पद के लिए अधिक योग्य है । केवल दुबारा नहाना पडेगा इसलिए गोशाला स्वच्छ करने में टालमटोल करनेवाला, समाज को कभी शुद्ध नहीं कर सकता । इसलिए लेहाना अर्थात अंगददेव ही समाज के लिए योग्य है तथा मेरा उत्तराधिकारी बनने का पात्र भी है । यह बताकर गुरु नानकदेवजी ने उसे गद्दी पर बिठाया ।
बच्चों, लेहना अर्थात अंगददेव तुरंत आज्ञापालन करते थे इसलिए गुरु नानकदेवजी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया । इस कहानी से आपको ध्यान में आया होगा कि स्वयं का विचार न कर आज्ञापालन करना ही योग्य आचरण है ।