बालमित्रो, देवर्षि नारद नारायण नारायण का जप करते हुए सदैव ब्रह्मांड में भ्रमण करते रहते हैं । एक बार देवर्षि नारदजी वैकुंठलोक में भगवान श्री विष्णुजी के दर्शन करने के लिए पहुंचे । वहां उन्होंने भगवान को भावपूर्ण नमस्कार किया और बोले, ‘हे प्रभो, कृपया मुझे सत्संग का महत्त्व बताइए ।’ उसपर भगवान ने कहा, ‘देवर्षि, भूलोक में अर्थात पृथ्वी पर जाइए । वहां एक पेड के पत्ते पर एक इल्ली मृतप्राय अवस्था में है । आप वहां जाकर उससे सत्संग का महत्त्व पूछ लीजिए ।’
भगवान श्रीविष्णु की आज्ञा के अनुसार देवर्षि नारद पृथ्वी पर पहुंचे । वहां पेड के पत्ते पर वह इल्ली मृतप्राय अवस्था में थी । जैसे ही इल्ली ने देवर्षि को देखा, वैसे ही उसने अपने प्राण त्याग दिए ।
देवर्षि कुछ नहीं समझ पाए । वह वहां से पुन: वैकुंठलोक पहुंचे । उन्होंने भगवान को नमस्कार किया और उन्होंने श्री विष्णुजी से पूछा कि, ‘प्रभो, मैं तो सत्संग का महत्त्व जानने के लिए गया था, परंतु मेरे वहां पहुंचते ही इल्ली ने तो अपने प्राण त्याग दिए ।’
ब्रह्मर्षि की वह बात सुनकर भगवान ने कहा ‘‘देवर्षि पृथ्वी पर अभी-अभी एक गाय ने बछडे को जन्म दिया है । आप वहां जाकर उस बछडे से सत्संग का महत्त्व पूछिए ।’’ देवर्षि पुनः पृथ्वी पर उस स्थान पर पहुंचे, जहां गाय ने बछडे को जन्म दिया था; परंतु नारदजी जैसे ही उस गाय के बछडे के पास पहुंचे तो उन्हें देखकर उस गाय के बछडे ने भी अपने प्राण त्याग दिए ।
यह देखकर देवर्षि को अत्यंत दु:ख हुआ । वह पुन: वैकुंठलोक पहुंच गए । अत्यंत दु:ख से उन्होंने भगवान श्री विष्णुजी को बताया कि कैसे उन्हें देखते ही उस गाय के बछडे ने तुरंत प्राण त्याग दिए ।
देवर्षि का कथन सुनकर भगवान ने कहा, ‘देवर्षि, अभी-अभी एक राजा के घर में अर्थात राजघराने में एक बालक ने जन्म लिया है । आप वहां जाकर उस राजकुमार से सत्संग का महत्त्व पूछिए ।’
भगवान श्रीविष्णु की यह बात सुनकर देवर्षि नारदजी ने कहा, ‘नहीं भगवन मैं वहां नहीं जाऊंगा । यदि मुझे देखकर राजकुमार ने अपने प्राण त्याग दिए, तो राजा तो मुझे कठोर दंड देंगे । अब तक दो जीवों ने मेरे सामने अपने प्राण त्याग दिए हैं । आप मुझे क्षमा करें तथा वहां जाने के लिए न कहें । अब तक यह बात मेरी समझ में नही आई है कि मेरे पहुंचने पर दो जीवोंने अपने प्राण त्याग दिए है, इसमें सत्संग का क्या महत्त्व है ?’
देवर्षि की यह बात सुनकर भगवान ने कहा, ‘‘नहीं देवर्षि, आप जिन दो जीवों की मृत्यु की बात कर रहे हैं, वे दोनों एक ही हैं । एक जीव ने ही तीन जन्म लिए हैं । यह सुनकर नारदजी चकित हो गए और बोले, ‘प्रभु, मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा आप इस लीला को विस्तार से बताइए ।
भगवान श्री विष्णुजी मुस्कुराते हुए कहा, ‘देवर्षि, इस जीव का जन्म पहले नीच योनी में अर्थात इल्ली के रूप में हुआ था । जब आप उस इल्ली के पास पहुंचे, तब उसे आपका एक क्षण का सत्संग मिला । उसने तुरंत अपने प्राण त्याग दिए और इल्ली से उच्च योनी में अर्थात गाय के बछडे के रूप में जन्म लिया । आप जब गाय के बछडे को देखने पहुंचे तबउस जीव को पुन: आपका सत्संग मिला । आप के कुछ क्षणों के दर्शन के लाभ से उस बछडे ने अपने प्राण त्याग दिए । आप के कुछ क्षणों के सत्संग से उस जीव को उर्ध्वगति मिली अर्थात उसे उच्च योनि प्राप्त हुई और उसी जीव ने अब राजघराने में एक राजपुत्र के रूप में जन्म लिया है । यदि यह जीव इस जन्म में भी आपके दर्शन कर लेगा तो वह इसी जन्म में मुक्ति को प्राप्त हो जाएगा ।’’
भगवान श्रीविष्णु ने आगे कहा, ‘‘देवर्षि, अब तो आप सत्संग का महत्त्व समझ ही गए होंगे कि यह तो एक क्षण के सत्संग का परिणाम है । सत्संग के कुछ क्षण पाकर जीव कितनी शीघ्रता से अनेक जन्मों से छुटकारा पाकर जीवनमुक्त हो सकता है ।’’
देवर्षि नारदजी ने हाथ जोडकर प्रभु के चरणों में कृतज्ञता व्यक्त की ।