जहां भी दान की चर्चा होती है, तो वहांपर राजस्थान के भामाशाह का नाम स्वयं ही मुंह पर आ जाता है । देश की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी सारी जमा पूंजी अर्पित करने वाले दानवीर भामाशाह का जन्म राजस्थान के अलवर में हुआ था । उनके पिता श्री भारमल्ल तथा माता श्रीमती कर्पूरदेवी थीं । श्री भारमल्ल राणा सांगा के समय रणथम्भौर किले के किलेदार थे । अपने पिता की तरह भामाशाह भी महाराणा प्रताप के परिवार के लिए समर्पित थे ।
महाराणा प्रताप और अकबर के बीच सदैव युद्ध होता रहता था तथा हर बार महाराणा प्रताप अकबर की सेना को खदेड देते थे; परंतु एक समय ऐसा आया जब अकबर से लडते हुए महाराणा प्रताप को अपनी प्राणप्रिय मातृभूमि का त्याग करना पडा । उनको अपने परिवार सहित जंगलों में रहना पडा । महलों में रहने और सोने चांदी के बरतनों में स्वादिष्ट भोजन करने वाले महाराणा के परिवार को अपार कष्ट उठाने पड रहे थे । महाराणा को बस एक ही चिन्ता थी कि किस प्रकार फिर से सेना जुटाएं, जिससे अपने देश को मुगल आक्रमणकारियों के चंगुल से मुक्त करा सकें ।
इस समय महाराणा के सम्मुख सबसे बडी समस्या धन की थी । उनके साथ जो विश्वसनीय सैनिक थे, उन्हें भी बहुत समय से वेतन नहीं मिला था । कुछ लोगों ने राणा को आत्मसमर्पण करने की सलाह दी; परंतु उन जैसे देशभक्त एवं स्वाभिमानी महाराणा को यह स्वीकार नहीं था । भामाशाह को जब महाराणा प्रताप के इन कष्टों का पता चला, तो उन्हें बहुत दुःख हुआ । उनके पास स्वयं का तथा पुरखों का कमाया हुआ अपार धन था । उन्होंने यह सब महाराणा के चरणों में अर्पित कर दिया । इतिहासकारों के बताए अनुसार उन्होंने २५ (पच्चीस) लाख रुपये तथा २०,००० (बीस हजार) स्वर्ण मुद्राएं राणा को समर्पित की थीं । बच्चो आज के समय से उस संपत्ति के मूल्य का आंकलन किया जाए, तो उसका मूल्य सहस्रों गुणा अधिक है । भामाशाह का त्याग देखकर महाराणा की आंखें नम हो गईं और उन्होंने भामाशाह को गले से लगा लिया ।
राणा की पत्नी महारानी अजवान्दे ने भामाशाह को पत्र लिखकर इस सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त की । उनके इस पत्र को पाते ही भामाशाह रानी जी के सम्मुख उपस्थित हो गए और नम्रता से कहा कि ‘मैंने तो अपना कर्त्तव्य निभाया है ।’ यह सब धन मैंने अपने देश से ही कमाया है । यदि यह देश की रक्षा में लग जाए, तो यह मेरा और मेरे परिवार का अहोभाग्य ही होगा । महारानी यह सुनकर क्या कहतीं, उन्होंने भामाशाह के त्याग के सम्मुख सिर झुका दिया ।
जब अकबर को इस घटना की जानकारी मिली, तो वह बहुत क्रोधित हो गया । वह सोच रहा था कि महाराणा प्रताप के पास धन का अभाव होने के कारण सेना को वेतन नहीं दे पाएंगे और सेना उन्हें छोडकर चली जाएगी । सेना के अभाव में राणा प्रताप को उसके सामने झुकना ही पडेगा; परंतु अकबर ने जो सोचा था वैसा नहीं हुआ । इस धन से राणा को नई शक्ति मिल गयी ।
अकबर ने क्रोधित होकर भामाशाह को पकडने का आदेश दिया । अकबर को उसके कई साथियों ने समझाया कि एक व्यापारी पर आक्रमण करना उसे शोभा नहीं देता । इस पर उसने भामाशाह को संदेश भेजा कि वह उसके दरबार में वह मनचाहा पद ले लें और राणा प्रताप को छोड दे । परंतु दानवीर भामाशाह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया । इतना ही नहीं उन्होंने अकबर से युद्ध की तैयारी भी कर ली । यह समाचार मिलने पर अकबर ने अपना विचार बदल दिया ।
भामाशाह से प्राप्त धन के सहयोग से महाराणा प्रताप ने एक नई सेना बनाकर अपने क्षेत्र को मुक्त करा लिया । भामाशाह जीवन भर महाराणा की सेवा में लगे रहे । महाराणा के देहान्त के बाद उन्होंने उनके पुत्र अमरसिंह के राजतिलक में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । इतना ही नहीं, जब उनका अन्त समय निकट आया, तो उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वह अमरसिंह के साथ सदा वैसा ही व्यवहार करे, जैसा उन्होंने महाराणा प्रताप के साथ किया था ।
आज के बच्चों को महाराणा प्रताप और भामाशाह के त्याग और तपस्या की कहानियां अवश्य सुनानी चाहिए । ताकि उन्हें भी यह ज्ञात हो सके कि उनके पूर्वजों ने मातृभूमि और धर्म की रक्षा के लिए कितना त्याग किया था ।