‘जब भगवान श्रीविष्णुजी ने वामन अवतार लिया, उस समय उन्होंने दानवीर बलीराजा से भिक्षा के रूप में तीन पग भूमि का दान मांगा । बलीराजा को यह बात पता नहीं थी कि श्रीविष्णुजी ही वामन के रूप में आए हैं । दान मांगने पर उसने उसी क्षण वामन को तीन पग भूमि दान की । वामन ने विराट रूप धारण कर पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी व्याप ली । दूसरे पग में अंतरिक्ष व्याप लिया । परंतु दूसरा पग उठाते समय क्या हुआ ? वामन के (श्रीविष्णु के) बाएं पैर के अंगूठे के धक्के से ब्रह्मांड का अत्यंत सूक्ष्म-जल का कवच टूट गया और एक छिद्र बन गया । उस छिद्र से ‘ब्रह्मांड के बाहर के सूक्ष्म-जल ने ब्रह्मांड में प्रवेश किया । यह सूक्ष्म-जल ही ‘गंगाजी’ है !
गंगाजी का यह प्रवाह सर्वप्रथम सत्यलोक में गया । वहां ब्रह्मदेव ने गंगाजी को अपने कमंडलु में धारण किया । उसके बाद सत्यलोक में ब्रह्माजी ने अपने कमंडलु के जल से अर्थात गंगाजी से श्रीविष्णुजी के चरणकमल धोए । अब गंगाजी की यात्रा सत्यलोक से तपोलोक, जनलोक, महर्लोक, इस मार्ग से स्वर्गलोक तक हुई ।
उच्च लोकों में रहनेवाली गंगाजी का पृथ्वी पर अवतरण कैसे हुआ, इसकी एक सुंदर कथा है –
‘सूर्यवंश के राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ आरंभ किया । बालमित्रो, अश्वमेध यज्ञ करनेवाले राजा द्वारा एक अश्व अर्थात विचरण के लिए छोडा जाता है तथा उस अश्व के साथ उस राज्य की सेना होती है । अश्व के मस्तक पर लिखा होता है कि जो इस अश्व को मुक्त विचरण करने देगा, उसे राजा की सुरक्षा प्राप्त होगी तथा जो इसे रोकेगा, उसे यज्ञ करनेवाले राजा की सेना से युद्ध करना पडेगा । उन्होंने दिग्विजय पाने के लिए यज्ञ का अश्वभेजा और अपने ६० हजार पुत्रों को भी उस अश्व की रक्षा हेतु भेजा । इस यज्ञ से इंद्रदेव भयभीत हो गए । उन्हें लगा अब उनका राजपद उनसे छिन जाएगा । इंद्रदेवने उस यज्ञ के अश्व को कपिलमुनि के आश्रम के निकट बांध दिया । जब सगरपुत्रों को वह अश्व कपिलमुनि के आश्रम के निकट बंधा हुआ दिखाई दिया, तब उन्हें लगा, ‘कपिलमुनि ने ही यज्ञ का अश्व चुराया है ।’ इसलिए सगरपुत्रों ने ध्यानस्थ कपिलमुनि पर आक्रमण करने का विचार किया । कपिलमुनि को अंतर्ज्ञान से यह बात ज्ञात हो गई तो उन्होंने अपने नेत्र खोले । उसी क्षण कपिलमुनि के आंखों से प्रक्षेपित तेज से सभी सगरपुत्र भस्म हो गए । कुछ समय बाद सगर के प्रपौत्र (नाती) राजा अंशुमन ने सगरपुत्रों की मृत्यु का कारण खोजा एवं उनके उद्धार का मार्ग पूछा । कपिलमुनि ने अंशुमन से कहा, ‘‘गंगाजी को स्वर्ग से भूतल पर लाना होगा । सगरपुत्रों की अस्थियों पर जब गंगाजल प्रवाहित होगा, तभी उनका उद्धार होगा !’’ मुनिवर के बताए अनुसार गंगा को पृथ्वी पर लाने हेतु अंशुमन ने तप आरंभ किया ।’
‘अंशुमन की मृत्यु के पश्चात उसके सुपुत्र राजा दिलीप ने भी गंगावतरण के लिए तपस्या की । अंशुमन एवं दिलीप के हजारो वर्ष तप करने पर भी गंगाजी नहीं आईं परंतु तपस्या के कारण अंशुमन और दिलीप राजा को स्वर्गलोक प्राप्त हुआ ।’
‘राजा दिलीप की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राजा भगीरथने कठोर तपस्या की । उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर गंगामाता ने भगीरथ से कहा, ‘‘मैं भूलोक पर आऊंगी, परंतु मेरे इस प्रचंड प्रवाह से पृथ्वी ही बह जाएगी । केवल भगवान शंकर ही इसे नियंत्रित कर सकते हैं । इसलिए तुम भगवान शंकर को प्रसन्न करो ।’’ आगे भगीरथ की घोर तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हुए तथा भगवान शंकर ने गंगाजी के प्रवाह को अपनी जटा में धारण किया और उसे पृथ्वी पर छोडा । शिवजी की जटा से निकलते समय गंगाजी तीन प्रवाह में बंट गईं । इन प्रवाहों में से पहला स्वर्ग में गया, दूसरा भूतल पर अर्थात पृथ्वी पर रह गया और तीसरा पाताल में बह गया । भूतल पर गंगाजी हिमालय में अवतरित हुईं हैं।
हिमालय से नीचे उतरते समय गंगाजी अपने साथ तपस्वी जन्हुऋषि की यज्ञभूमि बहा ले गईं । इस बात से क्रोधित होकर जन्हुऋषिने गंगा का संपूर्ण प्रवाह प्राशन कर लिया । यह देखकर भगीरथ ने जन्हुऋषि से प्रार्थना की और कहा की, वह उनके पूर्वजों के उद्धार के लिए तपस्या कर के गंगाजी को पृथ्वी पर लाए हैं, कृपया गंगाजी को छोड दें । तब जन्हुऋषि ने गंगाजी के प्रवाह को अपने एक कान से बाहर छोडा । इस कारण वे ‘जान्हवी (जन्हुऋषि की कन्या)’ कहलाने लगीं ।
उसके बाद गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे हरिद्वार, प्रयाग आदि स्थानों को पवित्र करते हुए आगे बढ गईं । गंगा ने सगरपुत्रों का उद्धार किया और वह आगे जाकर बंगाल के उपसागर में (खाडी में) समा गईं ।’
गंगाजी को स्वर्ग में ‘मंदाकिनी’, पृथ्वी पर ‘भागीरथी’ तथा पाताल में ‘भोगावती’ कहते हैं ।