महाभारत काल में महाभारत के भयंकर युद्ध से पहले योगेश्वर भगवान श्रीकृष्णजी ने कौरव और पांडवों को वचन दिया था कि ‘युद्ध से पहले जो याचक बनकर मेरे पास आएगा, वह जो मांगेगा, उसे मैं अवश्य दूंगा ।’ दुर्योधन के मामा शकुनी ने दुर्योधन को भगवान श्रीकृष्ण के पास युद्ध में सहायता मांगने के लिए भेजा । अर्जुन भी भगवान श्रीकृष्ण से सहायता लेने के लिए पहुंचे । दुर्योधन अर्जुन से पहले ही श्रीकृष्णजी के पास जा पहुंचा था । तब भगवान श्रीकृष्ण जी अपने महल में विश्राम कर रहे थे । यह देखकर उन्हीं के सिरहाने रखे एक ऊंचे आसन पर दुर्योधन बैठ गया और श्रीकृष्णजी का विश्राम पूर्ण होने की प्रतीक्षा करने लगा । वह अहंकार लेकर भगवान के पास पहुंचा था । उसमें याचक भाव नहीं था और न ही भगवान श्रीकृष्ण के प्रति मन में कोई श्रद्धा थी । बालमित्रो आप तो जानते ही हैं कि अहंकारी पर भगवान कभी कृपा नहीं करते ।
कुछ ही समय के बाद अर्जुन भी वहां पहुंचा । उसने देखा कि दुर्योधन पहलेही वहां पहुंचा है और ऊंचे आसन पर बैठकर प्रतीक्षा कर रहा है । दुर्योधन के समीप ही एक और आसन था; परंतु अर्जुन वहां नहीं बैठा । वह भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में बैठ गया । वह नमस्कार की मुद्रा में भगवान के जागने की प्रतीक्षा करने लगा । जब श्रीकृष्णजी ने आंखें खोली तब सबसे पहले उनकी दृष्टि चरणों में बैठे अर्जुन पर पडी । उन्होंने अर्जुन से कहा, ‘अर्जुन तुम आए हो, तो मैं तुम्हारी याचना अवश्य पूरी करूंगा ।’ तुम्हें जो मांगना है, वह मांगो ।’
अब दुर्योधन अर्जुन से पहले आया था तो अर्जुन पहले याचना करे, यह वह कैसे मानता ? दुर्योधन ने श्रीकृष्णजी से कहा, ‘अर्जुन से पहले मैं आया था, इसलिए कुछ भी मांगने का अधिकार सर्व प्रथम मेरा है । आपने वचन दिया है कि जो सबसे पहले आएगा और वह जो मांगेगा मैं उसे अवश्य दूंगा ।’तब श्रीकृष्णजी ने दुर्योधन से कहा, ‘तुम सर्वप्रथम आए तो हो, परंतु मैंने पहले अर्जुन को देखा है । वैसे भी अर्जुन तुमसे छोटा है । इसलिए पहले मांगने का अधिकार उसका है । श्रीकृष्णजीने अर्जुन से कहा, ‘अर्जुन, याचना के लिए तुम्हारे पास २ विकल्प हैं । एक ओर मैं श्रीकृष्ण हूं तथा मैं कोई शस्त्र नहीं उठाऊंगा । दूसरी ओर मेरी नारायणी सेना है जिसे संपूर्ण विश्व में कोई पराजित नहीं कर सकता । तुम्हें क्या चाहिए ?’
अर्जुन ने श्रीकृष्णजी के सामने स्वयं का मस्तक झुकाकर नम्रता से कहा ‘मैं नारायणी सेना से सहायता मांगने नहीं आया हूं भगवन मुझे तो आप ही चाहिए । क्या आप मेरे रथ के सारथी बनेंगे ? इस प्रकार अर्जुन ने श्रीकृष्ण की सेना नहीं मांगी, अपितु नि:शस्त्र भगवान श्रीकृष्णजी को मांगा । अर्जुन जानता था कि श्रीकृष्णजी स्वयं धर्म हैं और जहां धर्म है वहां विजय निश्चित है । इसलिए अर्जुन ने केवल श्रीकृष्णजी को मांगा और श्रीकृष्णजी ने उसकी याचना पूर्ण की ।
दुर्योधन को नारायणी सेना मिली, परंतु जिस पक्ष में भगवान श्रीकृष्ण थे, उस पक्ष की अर्थात पांडवों की जीत हुई यह हम सब जानते हैं ।
इस उदाहरण से हमारे ध्यान में आता है कि भगवान किस भक्त पर प्रसन्न होते हैं ? हम भगवान के पास जाते समय यदि मन में गर्व लेकर जाएंगे अथवा बिना शरणागत हुए जाएंगे, तो भगवान की कृपा नहीं मिलती । अपनी याचना, अपनी इच्छा पूर्ण नहीं करते । अर्जुन के समान याचक बनकर, शरणागत होकर जाने तथा फल की अपेक्षा किए बिना जाने से भगवान शीघ्र प्रसन्न होते हैं । अपने मन की इच्छा पूर्ण करते हैं । दुर्योधन मन में फल की इच्छा तथा अहंकार लेकर गया था इसलिए भगवान ने उसकी याचना पहले नहीं सुनी ।