बालमित्रो, सहस्रों वर्ष पुरानी बात है । एक बार देवता और असुरों में युद्ध हुआ । उसमें सभी देवता असुरों से पराजित हो गए । पराजित होने के कारण सभी चिंतित होकर भगवान श्रीविष्णुजी की शरण में गए । सभी देवताओं ने उनके चरणों में प्रणाम कर उनसे प्रार्थना की, ‘‘असुरों ने युद्ध में हमें पराजित कर दिया है । आप हमें असुरों पर विजय प्राप्त करने का कोई उपाय बताएं ।’’
तब भगवान श्रीविष्णुजी ने बताया, ‘‘आप सभी समुद्र के तट पर अर्थात किनारे पर जाकर असुरों को समझाएं । मंदार पर्वत और वासुकी नाग को भी वहां बुलाएं । मंदार पर्वत मथनी का काम करेगा और वासुकी नाग रस्सी का कार्य करेंगे । उस समय आप पर्वतों पर मिलनेवाली सभी औषधी वनस्पतियां समुद्र में डालना । इसके लिए आप असुरों के साथ लेकर समुद्रमंथन करना ।
भगवान श्रीविष्णुजी ने देवताओं से यह भी कहा की, समुद्रमंथन करने पर समुद्र से अमृत उत्पन्न होगा । उसे प्राशन कर आप सभी अमृतशक्ति प्राप्त कर अमर हो जाएंगे । आप सभी देवगण शक्तिशाली बन जाओगे । अमृत की शक्ति के कारण ही आप असुरों को पराजित कर सकेंगे ।
श्रीविष्णुजी का मार्गदर्शन सुनकर देवताओं ने उनको प्रणाम किया और वैकुंठ से समुद्रतट पर जा पहुंचे । देवताओं ने असुरों को समझाया और उसके बाद समुद्रमंथन की तैयारी आरंभ हुई ।
समुद्रमंथन में जो मंदाराचल पर्वत मथनी का काम करनेवाला था, उसे निकालकर समुद्र में लाया गया । श्रीविष्णुजी की आज्ञा से रस्सी का काम करनेवाले वासुकी नाग भी वहां आ गए । श्रीविष्णुजी स्वयं वहां उपस्थित थे । देवता और असुरों ने श्रीविष्णुजी से प्रार्थना की, ‘‘हे भगवन्, आप हमें इस समुद्रमंथन में सफल होने का आशीर्वाद दें ।’’ उसके उपरांत समुद्रमंथन आरंभ हुआ । भगवान श्रीविष्णुजी ने असुरों को वासुकी नाग के मुख की ओर और देवताओं को पूंछ की ओरखडा किया ।
मंथन आरंभ तो हुआ परन्तु नीचे आधार ने होने के कारण मंदराचल पर्वत समुद्र में डूबने लगा । सभी देवता और असुरों ने देखा की इतने कठिन प्रयास करने के बाद भी सारे प्रयत्न विफल हो रहे हैं । आगे क्या करें यह उनके ध्यान में नहीं आ रहा था । तब श्रीविष्णुजी समझ गए कि अब देवताओं की रक्षा हेतु उन्हें कुछ करना होगा ।
तब भगवान ने अत्यंत विशाल और विस्मयकारक कूर्म अर्थात कछुए का रूप धारण किया । उन्होंने समुद्र के पानी में प्रवेश कर मंदराचल पर्वत को अपने पीठ पर लेकर ऊपर उठाया । देवताओं ने और असुरों ने मंदराचल को ऊपर आया देखा और वे उत्साह से मंथन के लिए सिद्ध हो गए ।
मंदराचल पर्वत १ लाख योजन अर्थात १५ लाखकिलोमीटर बडा था । तो उसे पीठ पर लेनेवाले भगवान का कूर्म अवतार कितना बडा होगा यह ध्यान में आया न ? जब देवता और असुर अपने बाहुबल से मंदराचल पर्वत घुमा रहे थे, तो अतिशक्तिशाली आदि कूर्म भगवान को पर्वत का घूमना पीठ को खुजलाने जैसे लग रहा था ।
देवता और असुर इतने बलशाली थे; परंतु उनकी शक्ति पर्वत हिलाने के लिए कम पड रही थी । तो परम कृपालु भगवान ने असुरों की शक्ती और बल बढाने के लिए उनको सहायता भी की । भगवान ने अपने सहस्र हाथों से मंदराचल पर्वत को दबाकर पकड लिया । उस समय आकाश से ब्रह्मदेव, शंकर, इंद्र आदि ने उनकी स्तुति की और उनपर दिव्य पुष्पवृष्टि की । इस प्रकार भगवान ने सभी को शक्तिसंपन्न कर उत्साहित किया और सब मंदराचल की सहायता से समुद्रमंथन करने लगे ।
देवता और मनुष्यजाति के उद्धार के लिए भगवान श्रीविष्णु ने धारण किया कूर्मावतार यह दूसरा अवतार था । उसी के कारण समुद्रमंथन सफल हो सका । इस समुद्रमंथन से १४ रत्न, अनेक दिव्य वस्तुएं और साथ ही अमृत भी बाहर निकला । भगवान ने कूर्मअवतार में मंदराचल पर्वत का आधार बनने के साथ ही उनकी अगाध कृपा से यह मंथन सफल भी किया ।