बच्चों, बहुत वर्ष पहले की बात है । एक गांव में शिवशर्मा नामक एक धर्मात्मा रहते थे । धार्मिक वृत्ती के होने के कारण वह तप, योग करते थे । उनके पास अमृत से भरा हुआ एक घडा भी था, जिसकी वे रक्षा करते थे । शिवशर्माजी को पांच पुत्र थे । पाचोंपुत्र भी धार्मिक थे । सत्कर्म करके शिवशर्माजी के चार पुत्र गोलोकधाम चले गए ।
चारों पुत्रों के जाने के बाद शिवशर्माजी ने अपने छोटे पुत्र सोमशर्मा को अमृत के घडे की रक्षा करने के लिए कहा । अमृत का घडा अपने पुत्र के पास देकर वह स्वयं पत्नी के साथ तीर्थयात्रा करने चले गए । दस वर्ष बाद शिवशर्माजी अपने पुत्र के पास लौटे । पुत्र की परीक्षा लेने का विचार उनके मन में आया । उन्होंने पत्नी सहित कोढी का रूप धारण कर लिया। उन दोनोंके पूर्ण शरीर पर भयंकर कुष्ठ हो गया । जिसके कारण पूरे शरीर पर घाव हो गएथे और उससे रक्त भी निकल रहा था, उनके शरीर से बहुत दुर्गंध भी आ रही थी । माता-पिता को देखकर सोमशर्मा उनके चरणों में गिर पडे । माता-पिता को होनेवाली पीडा देखकर वे बहुत दुखी हुए । सोमशर्मा ने माता-पिता के घावों को अच्छे से धोया । उन्हें स्वच्छ किया और कोमल बिछौने पर उन्हें बैठाया ।
अपने माता-पिता की सेवा सोमशर्मा बडे परिश्रम से करते थे । दिन भर वह माता पिता की सेवा करते थे । उनके मल-मूत्र और कफ भी धोते थे । अपने हाथ से उनके चरण दबाते । उनके रहने का, स्नान करने का, भोजन करने का प्रबंध बडी सावधानी से करते । माता-पिता को अपने दोनों कंधो पर बिठाकर सोमशर्मा तीर्थक्षेत्र भी लेकर जाते थे । वहां पर नित्यकर्म, हवन, तर्पण, देवपूजन आदि करते हुए माता-पिता की सेवा भी करते थे । सेवा मे कोई त्रुटी न रहे, इसका पूरा ध्यान रखते थे । माता-पिता के लिए उत्तम भोजन, सुंदर वस्त्र का उपयोग करते थे । माता-पिता की जैसी इच्छा होती थी, सोमशर्मा वैसेही करते थे । हमेशा उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करते रहते थे । परंतु पिता शिवशर्मा उनकी परीक्षा ले रहे थे । इसके लिए वे सोमशर्मा से बडी कठोरता से बात करते थे । उसे बार बार झिडकते थे, तिरस्कार करते थे और डंडो से पीटते भी थे । परंतु पिता की इन कृतियों पर सोमशर्मा ने कभी क्रोध नहीं किया । वह पूरे मन से उनकी सेवा करते थे । उनसे उच्छी बातें करते थे और अपनी कृती से पिता की पूजा ही करते थे ।
एक दिन शिवशर्माजी ने अपने पुत्र को बुलाया और बोले, ‘‘बेटा, मैंने तुम्हें रोगनाशक अमृत दिया था, उसे लाकर मुझे दो । मैं उसे पीना चाहता हूं ।’’ सोमशर्मा अमृत का घडा लाने गए तब उसमें एक बूंद भी अमृत नहीं था । यह देखकर मन-ही-मन सोमशर्मा बोले ‘‘यदि मैंने सत्य की राह पर रहकर गुरु की सेवा की है, निश्चलभाव से तप किया है । यदि मुझे किसी बात का अहंकार नहीं है, पवित्रता रखने का प्रयास किया है, और सभी कर्तव्यों का पालन किया है, तो यह घडा अमृत से भर जाए ।’’ ऐसा कहकर सोमशर्मा ने जैसे ही कलश की ओर देखा, तो घडा ऊपर तक अमृत से भर गया । बडी प्रसन्नता से घडा लेकर सोमशर्मा अपने पिता के पास गए । अनेक दिनों तक सोमशर्मा की परीक्षा लेने के बाद सोमशर्मा पर उसके पिता प्रसन्न हो गए ।
पुत्र पर प्रसन्न हुए शिवशर्मा जी ने पत्नी के साथ कोढी का जो कृत्रिम रूप धारण किया था उसे छोड दिया और पहले के समान स्वस्थ रूप धारण कर लिया । सोमशर्मा ने माता-पिता के चरणों मे प्रणाम किया । अपने तप और योग के प्रभाव से शिवशर्मा भगवान विष्णु के परम धाम चले गए ।