बच्चों, समर्थ रामदास स्वामीजी का एक शिष्य था । एक दिन वह भिक्षा मांगते हुए वह एक घर के सामने आया । ‘भवति भिक्षां देहि ।’ ऐसे कहकर भिक्षा देनेके लिए उसने आवाज लगाई ।
घर का दरवाजा खोलकर एक योगी बाहर आया । उसे देखकर शिष्य ने कहा, ‘‘योगीराज, मुझे भिक्षा दें ।’’ योगी अहंकारी थे । उन्होंने पूछा, ‘‘कौन है तुम्हारा गुरु ?’’ शिष्य ने कहा, ‘‘मेरे गुरु समर्थ रामदास स्वामीजी है, जो सर्वथा समर्थ है ।’’
शिष्य की बात सुनकर उस अहंकारी योगी ने क्रोध से पूछा, ‘‘कौन है ये समर्थ ? तुम्हारा इतना दुःसाहस की, मेरे दरवाजे पर आकर किसी और का गुणगान कर रहे हो । देखता हूं, कितना समर्थ है तेरा गुरु ? मैं तुम्हें शाप देता हूं कि, कल का सूरज ऊगने से पहले ही तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी । यदि तुम्हारे गुरु इतने श्रेष्ठ हैं, तो तुम्हारी मृत्यु टालकर दिखाएं ।’’ यह सुनकर गांववाले बोले कि, इस योगी का दिया हुआ शाप कभी भी व्यर्थ नहीं जाता । शिष्य ने यह सुना तो वह घबरा गया ।
वह उदास होकर आश्रम लौट गया । उसे देखकर स्वामीजी हंसते हुए उसे बोले, ‘‘ले आया भिक्षा ?’’ बेचारा शिष्य क्या बोलेगा ? उसने कहा, ‘‘जी गुरुदेव । भिक्षा में अपनी मृत्यु ले आया हूं ।’’ ऐसा कहकर शिष्य ने पूरी घटना अपने गुरुदेव को सुना दी ।
गुरुदेव बोले, ‘‘अच्छा ! अब भोजन कर ले ।’’ शिष्य ने कहा, ‘‘गुरुदेव, मेरे प्राण सूख रहे हैं । अन्न का एक दाना भी मेरे गले नहीं उतरेगा ।’’ उस पर समर्थ रामदास बोले, ‘‘अभी पूरी रात शेष है । चिंता न करो ।’’ ऐसा कहकर समर्थजी भोजन करने चले गए ।
सोते समय समर्थजी ने शिष्य को बुलाकर कहा, ‘‘मेरे चरण दबा दे !’’ शिष्य ने कहा, ‘‘जी गुरुदेव ! जीवन के अंतिम क्षणों में आपके चरणों की सेवा करने की ही इच्छा है ।’’ और उसने गुरुदेव के चरण दबाने आरंभ किए । समर्थ ने कहा, ‘‘चाहे जो भी हो, चरण छोडकर मत जाना ।’’ ऐसे गुरुदेवजी ने तीन बार दोहराया और वे सो गए । शिष्य पूरे भाव से गुरु के चरण दबाने लगा ।
अपना शाप पूरा करने के लिए रात्रि के पहले पहर में उस योगी ने एक सुंदर स्त्री को भेजा । वह दरवाजे पर आकर शिष्य से कहने लगी, ‘‘यहां आकर सोने-चांदी से भरा घडा ले लो ।’’ शिष्य ने कहा, ‘‘क्षमा करें देवी, मैं गुरुसेवा में हूं, आप चाहें तो यहां आकर मुझे दें ।’’ उस स्त्री ने कहा, ‘‘नहीं ! तुम्हे यहां आना होगा ।’’ परंतु शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए बोला मैं सेवा छोडकर नहीं आऊंगा।
अहंकारी योगी का पहला प्रयास असफल हो गया । रात्रि के दूसरे पहर में योगी ने शिष्य की मां के रूप में एक स्त्री को भेजा । शिष्य अभी भी गुरुदेवजी के चरण दबा रहा था । तभी दरवाजे से आवाज आई, ‘‘बेटा । तुम कैसे हो ?’’ शिष्य अपनी मां को देखकर सोचने लगा, ‘अच्छा हुआ मरने से पहले मां के भी दर्शन हो गए ।’ मां का रूप धारण की हुई स्त्री ने कहा, ‘‘बेटा, मेरे पास आओ । तुमसे मिले बहुत दिन हो गए हैं ।’’ शिष्य ने कहा, ‘‘मां, मैं गुरुसेवा कर रहा हूं । इसलिए आप यहीं आ जाओ ।’’ यह सुनकर वह स्त्री चली गई ।
रात्रि का तीसरा पहर बीता । अब योगी ने यमदूत रूप धारण किए हुए एक राक्षस को भेजा । दरवाजे पर पहुंचकर वह शिष्य से बोला, ‘‘चल, मैं तुझे लेने आया हूं । तेरी मृत्यु आ गई है ।’’ शिष्य बोला, ‘‘मेरा काल हो, या कोई और हो, मैं नही आने वाला ! मै गुरुदेव के चरण नहीं छोडूंगा ! आना है तो यहां आकर मुझे ले जाओ ।’’ वह राक्षस भी चला गया । इस प्रकार शिष्य ने अपने गुरु की आज्ञा का पूर्ण पालन किया ।
प्रात:काल में गुरुदेव समर्थ रामदासजी जागे । शिष्य अभी भी उनके चरण दबाने की सेवा कर रहा था । उसे देखकर समर्थ बोले, ‘‘सुबह हो गई ?’’ शिष्य बोला, ‘‘जी गुरुदेव, सुबह हो गई ।’’ गुरुदेव हंसते हुए बोले, ‘‘अरे ! तुम्हारी तो मृत्यु होने वाली थी न ? परंतु तुम तो जीवित हो ।’’ शिष्य ने रात्रि के हर पहर मे घटी सारी घटनाओं का स्मरण किया । तब उसे ध्यान में आया कि, ‘गुरुदेवजी ने चरण न छोडने के लिए क्यों कहा था ।’ शिष्य ने गुरुदेवजी के चरण पकडकर कृतज्ञताभाव से कहा, ‘‘गुरुदेव, जिसके सर पर आप जैसे गुरुदेव का हाथ हो, उसका काल भी कुछ नहीं बिगाड सकता। आप धन्य हो गुरुदेव ।’’
बालमित्रो आपके ध्यान में आया न कि आज्ञापालन का कितना महत्त्व है । आज्ञापालन से मृत्यु भी टल सकती है ।