बच्चो, यह ४०० (चार सौ) वर्ष पहली घटना है । पैठण गाव मे कूर्मदास नाम का एक व्यक्ति था । वह जन्म से ही विकलांग था । उसके हाथ और पांव नही थे । एक दिन उसके गाव के मंदिर में कीर्तन था । वह रेंगते हुए कीर्तन सुनने के लिए गया । कीर्तन करनेवाला हरिदास नाम का व्यक्ती बडे ही प्रेम से भगवान की लिलाआें का वर्णन कर रहा था । हरिदासजी ने कीर्तन में विठ्ठल के पंढरपूर क्षेत्र का अलौकिक महीमा बताई । वह सुनकर कूर्मदास के मन मे विचार आया की ‘विठ्ठल की इतनी सारी आनंददायी लिलाएं है । भगवान विठ्ठल के क्षेत्र पंढरपूर का दर्शन कर पाऊं तो कितना आनंद मिलेगा ? एक बार तो पंढरपूर जाकर दर्शन लेना ही होगा ।’ कूर्मदास ने यह विचार वहां आए लोगों को बताया । लोगों ने पूछा, ‘तुम्हारे तो हाथ-पांव नही है, तो तुम पंढरपूर कैसे जाओगे ?’’ किसीने उसकी सहायता नही की ।
कूर्मदास ने लोगों के बातों की ओर दुर्लक्ष किया । उसने ‘पंढरपूर जाना ही है’, यह निश्चित ही कर लिया था । पंढरपूर जाने की तीव्र इच्छा से वह रेंगते हुए पंढरपूर की ओर निकल पडा । रात तक वह गाव के बाहर हनुमानजी के मंदिर तक पहुंचा । दिनभर वह बिना कुछ खाए-पिए पंढरपूर जाने की इच्छा से आगे बढ रहा था । मंदिर मे पहुंचने के बाद उसे बडी भूक लगी । भूक से व्याकुल होकर वह पंढरीनाथ भगवान विठ्ठल को आर्तता से पुकारने लगा ।
भगवान ने उसकी आर्त पुकार सुन ली । विठ्ठल एक व्यापारी का रूप लेकर वहां आए । कूर्मदास को देखकर बोले, ‘‘आपके हाथ और पैर नही है, फिर आप यहा कहां आ गए ?’’ तब कूर्मदास ने कहा, ‘‘मेरा नाम कूर्मदास है । मै पंढरपूर जा रहा हूं ।’’ व्यापारी के रूप में आए विठ्ठल बोले, ‘‘अच्छा हुआ । मुझे भी साथ संगत मिल गई ।’’ कूर्मदास ने पूछा तो विठ्ठल बोले, ‘‘मेरा नाम विठोबा है । मैं गांव-गांव जाकर व्यापार करता हूं । पंढरपूर में मेरी एक दुकान है । इसलिए आज यहां रुककर मै आगे जानेवाला हूं ।’’ यह सुनकर कूर्मदास को परम संतोष हुआ । विठोबा ने भोजन बनाया और कूर्मदास को खिलाया । कूर्मदास को ओढने के लिए अपना वस्त्र भी दिया । विठोबा बोले, ‘‘कल आप जहां पर जाएंगे । वहा पर मैं भी आप के साथ चलूंगा । आपका भोजन मैं पकाऊंगा ।’’ इतना कहकर विठोबा वहा से दूर चला गया और अदृश्य हो गया ।
दुसरे दिन सुबह कूर्मदास दुसरे गांव में पहुंचा । रात में उसी गांव मे निवास किया । विठोबा ने वहां पहुंचकर कूर्मदास के लिए भोजन बनाया और उसे खिलाकर चले गए । ऐसे करते करते कार्तिक माह मे कूर्मदास लहुळ नाम के एक गांव मे पहुंचा । वह कार्तिक शुक्ल पक्ष दशमी का दिन था । उस दिन लहुळ गाव से पंढरपूर की यात्रा निकली । दुसरे दिन एकादशी थी । बच्चों एकादशी भगवान विठ्ठल की होती है । कूर्मदास ने सोचा, ‘कल विठ्ठल की एकादशी है; परंतु तबतक मै पंढरपूर पहूंच नही पाऊंगा ।’ इसलिए उसने पंढरपूर जा रहे एक यात्रेकरू से हाथ जोडकर कहा, ‘‘आप मेरा नमस्कार विठ्ठल को बताना । विठ्ठल को मेरा प्रार्थनारूपी संदेश देना । पंढरपूर यहां से सात कोस दूर है । एक दिन में मै इतना अंतर नही काट सकूंगा । यहा तक आया; परंतु पंढरपूर जाकर मै उनके चरणों का दर्शन मै नही कर पाऊंगा, इसका मुझे दुख हो रहा है । विठ्ठल आप ही यहां पर आए और इस दीन का उद्धार करें ।’’
दुसरी ओर पंढरपूर महाद्वार में संत नामदेवजी का कीर्तन शुरू था । पंढरपूर जानेवाले उस यात्रेकरू ने कूर्मदास का यह संदेश भगवान विठ्ठल के सामने कथन किया । उसी क्षण भगवान पांडुरंग वहा से निकले और कूर्मदास के पास लहुळ मे आए । साक्षात भगवान को समक्ष देखकर कूर्मदास ने उनके चरणों पर अपना मस्तक रखा । भगवान विठ्ठल ने उसे अपने चतुर्भूज रूप का दर्शन दिया और वर मांगने के लिए कहा । कूर्मदास बोला, ‘‘भगवान अब आप यहा से ना जाए, यही मेरी विनती है ।’’ भगवान ने उसकी विनती मान्य की और वही पर रहे । तभी से जैसे पंढरपूर क्षेत्र का महिमा है, वैसेही लहुळ क्षेत्र को महिमा प्राप्त हो गया ।
बच्चों, भगवान कितने परमदयालु है, यह ध्यान में आया न ? भगवान को आर्तता से पुकारने पर वे भक्त के लिए दौडे चले आते है, भक्त का ध्यान रखते है । भक्त की तडप देखकर भगवान स्वयं आकर दर्शन देते है ।