प्राचीन समय की बात है । चोलराज और विष्णुदास नाम के दो मित्र थे । दोनो भगवान श्रीविष्णुजी के भक्त थे । चोलराज यह चक्रवर्ती सम्राट था । वह धनवान और दानवीर था । इसके विपरीत विष्णुदास एक गरीब परंतु विद्वान ब्राह्मण था ।
दोनो प्रतिदिन भगवान श्रीविष्णुजी के एक मंदिर मे पूजा करने के लिए जाते थे । एक दिन सम्राट चोलराज मंदिर में भगवान की पूजा करने के लिए गए । उन्होंने भगवान की मूर्ति की मनःपूर्वक पूजा की । भगवान को कीमती वस्त्र पहनाए। हीरे, माणिक, मोती के अलंकार चढाए। अन्य रत्नों से भगवान की मूर्ति बहुत अच्छे से सजाई । पूजा के बाद वे शांति से मंदिर में थोडी देर के लिए बैठ गए ।
कुछ देर बाद विष्णुदास भी मंदिर में पूजा करने के लिए आए । विष्णुदास भगवान की भक्ति में मग्न हो जाता था । वह इतना मग्न हो जाता था की उसे आस-पास का ध्यान भी नहीं रहता था । विष्णुदास ने श्रीविष्णु सूक्त कहते हुए भगवान की मूर्ति को जल का स्नान कराना आरंभ कर दिया । उससे चोलराज ने जो वस्त्र और अलंकार भगवान को चढाए थे, वह पानी से भीग गए । बाद में विष्णुदास ने मूर्ति पर तुलसी के पत्ते और पुष्प अर्पण किए । उसके कारण मूर्ति पर पहले ही चोलराज ने अर्पण किए हुए सभी हीरे- मोती के अलंकार ढक गए । चोलराज वहीं बैठा था । विष्णुदास की यह कृति देखकर उसे क्रोध आया । चोलराज बोले, ‘‘तुम्हारे फूलों के कारण मैंने अर्पण किए हुए हीरे और अलंकार दिखाई नहीं दे रहे हैं । तब विष्णुदास बोले, ‘‘भगवान को हीरे-मोतियों का मोह नहीं होता । भगवान भक्ति के भूखे होते हैं ।’’
यह सुनकर राजा को अत्यधिक क्रोध आया । वह बोला, ‘‘हे दरिद्री ब्राह्मण, तुम्हे अपने भक्ति का अहंकार हो गया है । भक्ति की बाते करते हो, तो यह बताओ की, तुम ने अब तक कितने मंदिर बनाए हैं अथवा कितना दान धर्म किया है ?’’ इस पर विष्णुदास ने कोईभी उत्तर नहीं दिया । वह शांती से खडे थे । यह देख चोलराज ने विष्णुदास को आव्हान दिया । उन्होंने कहा, ‘‘भगवान विष्णु जिसको सबसे पहले दर्शन देंगे, वही भगवान श्रीविष्णु जी का श्रेष्ठ भक्त होगा ।’’ विष्णुदास ने गर्दन झुकाकर यह बात स्वीकारी ।
चोलराज सम्राट था । वह ऐश्वर्य संपन्न था । उसने अनेक ऋषि-मुनियों को बुलाया । विष्णु जी को शीघ्रातिशीघ्र प्रसन्न करने के लिए अपने संपत्ति की जोर पर यज्ञ, याग, हवन करके प्रयास करने लगा । स्वयं की संपत्ति और साधना इन दोनों का चोलराज को अहंकार हो गया था । दूसरी ओर निर्धन विष्णुदास तो केवल भगवान का अधिकाधिक नामजप कर सकता था । वह पूरा समय नामस्मरण करता रहता । अखंड नामजप के कारण धीरे-धीरे विष्णुदास के आचार-विचारों में बदलाव होने लगा । विष्णुदास पशु, मनुष्य, वस्तुएं आदि सभी में भगवान को देखने लगा । साधना करने के लिए अधिकाधिक समय मिले, इसलिए विष्णुदास दिन में एक बार ही भोजन ग्रहण करने लगा । ऐसे करते हुए समय बीत गया ।
एक दिन विष्णुदास ने प्रतिदिन की भांति स्वयं के लिए रोटियां बनाई; परंतु कुछ ही देर पहले बनाई रोटियां थाली से गायब हो गई । विष्णुदास ने सोचा, ‘‘अब पुन: रोटियां बनाने के लिए बैठूंगा, तो साधना खंडित हो जाएगी ।’’ साधनाखंडित न हो, इसलिए उस दिन विष्णुदास ने उपवास कर लिया । दूसरे दिन पुन: वही हुआ । उसकी बनाई हुई रोटियां गायब हो गई । ऐसा ७ दिन तक होता रहा । तब विष्णुदास ने सोचा, यह जो घटित हो रहा है, वह जानकर लेना आवश्यक है ।
दुसरे दिन रोटियां थाली से गायब होने का कारण जानने के लिए विष्णुदास ने रोटियां बनाकर थाली में रख दी और स्वयं एक कोने में जाकर बैठ गया । थोडी देर बाद वहां पर एक व्यक्ति आया और रोटी चुरा कर ले जाने लगा । वह बहुत ही कमजोर दिखाई पड रहा था । यह देखकर विष्णुदास जी उसकी सहायता के लिए उठ गए । विष्णुदास को देखकर वह व्यक्ति भयभीत हो गया और रोटी वहीं पर छोड कर भागने लगा । विष्णुदास भी उसके पीछे-पीछे उसे रोटी देने के लिए दौडे । कुछ अंतर के बाद वह व्यक्ति थक कर नीचे गिर गया । विष्णुदास ने उसे जगाने का प्रयास किया । स्वयं के वस्त्र से उसे हवा करने लगे । और क्या आश्चर्य ! देखते ही देखते उस व्यक्ति के स्थान पर भगवान श्रीविष्णु प्रकट हो गए । विष्णुदास की भक्ति से भगवान विष्णु प्रसन्न हो गए । यह वार्ता चोलराज को मिली । उसे यह समझ में आ गया की, ‘धन के बल पर नही, तो भक्ति से ही भगवान को जीता जा सकता है ।’ उसने विष्णुदास की भक्ति को श्रेष्ठ मानकर उसे प्रणाम किया ।
बच्चों, भगवान को धन, हीरे, माणिक, मोती यह नही, तो भक्त की भक्ति और भाव भाता है यह ध्यान में आया न ?