एक बार देवताओं को अहंकार हो गया था । मां दुर्गादेवी ने देवताओं का अहंकार नष्ट किया था । इससे जुडी एक कथा आज हम सुनेंगे ।
एक बार देवताओं और राक्षसों के बीच अत्यंत भीषण युद्ध हुआ । इस भीषण युद्ध मे अंतत: देवताओं की विजय हुई। देवताओं को उस विजय का अहंकार हो गया । सभी अभिमान से अपनेआप को सर्वोत्तम मानने लगे ।
बच्चो आपको पता है, हम कोई गलती कर रहे हो तो हमारी मां हमें कैसे सिखाती है, वैसेही दुर्गामाता जो साक्षात् जगन्माता है, उन्होंनें देवताओं के इस मिथ्या अभिमान को नष्ट करने के लिए तेजोमय प्रकाश स्वरूप धारण किया जिसमें केवल प्रकाश दिखाई दे रहा था । वह रूप लेकर माता दुर्गादेवी देवताओं के समक्ष प्रकट हुई । विराट स्वरूप में तेजोमय प्रकाश देखकर सभी देवगण भयभीत हो गए । उस तेजोमय प्रकाश का रहस्य जानने के लिए देवराज इन्द्र ने वरुण देव को आगे भेजा ।
दुर्गादेवी के तेजोमय प्रकाश स्वरूप के सामने जाकर वरुण देव अपनी शक्तियों का वर्णन अहंकार सेकरने लगे । वरुण देव तेजोमय प्रकाश से उसका परिचय मांगने लगे । तब तेजोमय प्रकाश ने वरुण देव के सामने एक छोटा सा तिनका रखा और उनसे कहा की, तुम वास्तव में इतने बलशाली हो । जितना तुम स्वयं का वर्णन कर रहे हो, तो इस तिनके को उडा कर दिखाओ ।
वरुण देव ने अपना पूरा बल लगा दिया; पर उनसे वह तिनका रत्ती भर भी नहीं हिल पाया । वरुण देव का घमंड चूर-चूर हो गया । अंत मे वह वापस लौटे और उन्होने वह घटना इन्द्र देव को बताई । उसके बाद इन्द्र देव ने अग्नि देव को भेजा । तेजपुंज ने अग्नि देव से कहा की, अपने बल और पराक्रम से इस तिनके को भस्म कर के दिखाइए ।
अग्नि देव ने भी इस कार्य के लिए अपनी समस्त शक्ति का उपयोग किया; परंतु कुछ भी नहीं हुआ । अंत में वह भी सिर झुकाए इन्द्र देव के पास लौट आए । इस प्रकार एक-एक कर के समस्त देवता तेजोमय प्रकाश स्वरूप की चुनौती से परास्त हो गए । अंत में देवराज इन्द्र स्वयं आगे आए; परंतु उन्हे भी सफलता नहीं मिली । तब समस्त देव गण ने तेजोमय प्रकाश से पराजय स्विकार कर तेजोमय प्रकाश का गुणगान करना आरंभ कर दिया । उस समय तेजोमय प्रकाश स्वरूप में आई माता दुर्गादेवी ने अपना वास्तविक रूप दिखाया और देवताओं को यह ज्ञान भी दिया की माता शक्ति के आशीर्वाद के कारण ही देवता सभी दानवों को परास्त कर पाए हैं । तब देवताओं नें भी अपनी गलती के लिए दुर्गामाता से क्षमा मांगी और अपना मिथ्या अभिमान त्याग दिया ।
इससे हमें सीखने मिलता है कि, सफलता मिलने पर मन में अपनेआप ही अहंकार प्रकट हो जाता हैै; परंतु सफलता मिलने पर हमें यह ध्यान में लेना है की यह सफलता भगवान की कृपा से ही मिली है और उनके चरणों मे कृतज्ञता व्यक्त करनी है ।